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◆ महत्व_ सेम एक लता है। इसमें फलियां लगती हैं। फलियों की सब्जी खाई जाती है। इसकी पत्तियां चारे के रूप में प्रयोग की जा सकती हैं। ललौसी नामक त्वचा रोग सेम की पत्ती को संक्रमित स्थान पर रगड़ने मात्र से ठीक हो जाता है। सेम संसार के प्रायः सभी भागों में उगाई जाती हैं। इसकी अनेक जातियां होती हैं और उसी के अनुसार फलियां भिन्न-भिन्न आकार की लंबी, चिपटी और कुछ टेढ़ी तथा सफेद, हरी, पीली आदि रंगों की होती हैं, इसकी फलियां शाक-सब्जी के रूप में खाई जाती हैं, स्वादिष्ट और पुष्टिकर होती हैं इसके बीज भी शाक के रूप में खाए जाते हैं। इसकी दाल भी होती है बीज में प्रोटीन की मात्रा पर्याप्त रहती है। उसी कारण इसमें पौष्टिकता आ जाती है। सेम के पौधे बेल प्रकार के होते हैं। भारत में घरों के निकट इन्हें छानों पर चढ़ाते हैं। खेतों में इनकी बेलें जमीन पर फैलती हैं। और फल देती हैं। उत्तर प्रदेश में रेंड़ी के खेत में इसे हो बोते हैं।
◆ जलवायु _ सेम ठंडी जलवायु की फसल है। इसे 15℃-22℃ तक तापमान की आवश्यकता होती है, इसमें पहला सहने की क्षमता अधिक होती हैं।
◆ भूमि _ इसके लिए उत्तम निकास वाली दोमट भूमि अधिक उपयुक्त रहती है। अधिक क्षारीय और अधिक अम्लीय भूमि इसकी खेती में बाधक होती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें उसके बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हल चलाएं प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं।
◆ उन्नत किस्में
(i) पूसा अर्ली प्रौलिफिक _ इस किस्म का विकास भारतीय अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है। इसकी फलियां पतली, लम्बी और कोमल होती हैं। फलियां अधिक गुच्छों में लगती हैं। इस किस्म कि एक विशेषता यह भी है कि इसे बसंत और वर्षा ऋतु में उगाया जा सकता है।
(ii) एच. डी.1_ इस किस्म का विकास चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय हिसार हरियाणा, द्वारा किया गया है। यह एक अगेती किस्म है। फलियां मध्यम आकार की और हरे रंग की होती हैं। इसकी उपज 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक मध्यम हरी फलियां मिल जाती हैं।
(iii) एच. डी.18_ इस किस्म का विकास चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय हिसार हरियाणा द्वारा किया गया है। इस किस्म की फलियां मोटी, लंबी और कमान के आकार की होती हैं। फलियां हरे रंग की होती हैं जो देखने में सुंदर व स्वादिष्ट होती हैं।
(iv) रजनी_ यह किस्म 75-85 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। इस किस्म का विकास चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर के कल्याणपुर स्थित साग-भाजी अनुसंधान केंद्र द्वारा किया गया है। इसकी फलियां गुच्छों में लगती हैं। फलियां हरे रंग की होती हैं बीच उभरे हुए लंबे कम चौड़े, 5-7 बीज प्रति फली मिलते हैं। प्रत्येक गुच्छे में 8 से 12 फलियां लगती हैं। इसकी हरी फलियों की उपज 140-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती हैं।
(v) कल्याणपुर टाइप 1_ यह शीघ्र पकने वाली किस्म है। इसका दाना मध्यम आकार का होता है। यह सब्जी के लिए उत्तम किस्म है। इसकी औसत उपज 140-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
◆ बोने का समय _ अगेती फसल फरवरी-मार्च वर्षाकालीन फसल _ जून-जुलाई
रजनी नामक किस्म _ अगस्त के अंत तक बोई जाती है।
◆ बीज की मात्रा – 6 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है
◆ अंतरण _ पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी क्रमश: 10 सेमी. और 10 सेमी रखें। यदि सेम को चौड़ी क्यारियों में बोना हो तो 1.5 मीटर की चौड़ी क्यारियां बनाएं उनके किनारों पर 50 सेमी की दूरी पर 2 से 3 सेमी की गहराई पर बीज बोएं। पौधों को सहारा देकर ऊपर बढ़ाना लाभप्रद होता है।
◆ खाद तथा उर्वरक _सेम की फसल की अच्छी उपज लेने के लिए उसमें कार्बनिक खाद का पर्याप्त मात्रा में होना जरूरी है इसके लिए एक हेक्टेयर भूमि में 40-50 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, 20 किलोग्राम नीम और 50 किग्रा अरंडी की खली इन सब खादों को अच्छी तरह मिलाकर मिश्रण बनाकर खेत में बुवाई से पहले समान मात्रा में बिखेर लें और खेत की जुताई कर खेत को तैयार करें इसके बाद बुवाई करनी चाहिए।
• और जब फसल 25-30 दिन की हो जाए तब उसमें 10 लीटर गोमूत्र में नीम का काढ़ा मिलाकर अच्छी प्रकार से मिश्रण तैयार कर फसल में तरबतर कर छिड़काव करें। और हर 15-20 दिन के अंतर से दूसरा व तीसरा छिड़काव करें।
रासायनिक खाद की दशा में-
25 से 30 टन सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में बुवाई से एक माह पूर्व तथा बुवाई से पूर्व नालियों में 50 किग्रा डी.ए.पी., 50 किग्रा म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जमीन में मिलाए। शेष नत्रजन 30 किग्रा यूरिया बुवाई के 20-25 दिन बाद व इतनी ही मात्रा 50-55 दिन बाद पुष्पन की अवस्था में डालें।
◆ सिंचाई _अगेती फसल में आवश्यकता अनुसार सिंचाई करें वर्षाकालीन फसल में आमतौर पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है यदि वर्षा समय पर न हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें। फरवरी-मार्च में 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए।
◆ कीट नियंत्रण _
● बीज का चेंपा_ यह एक छोटा सा कीट होता है, जो पत्तियों और पौधों के अन्य भाग का रस चूस लेता है। फूल और फलियों को काफी हानि पहुंचाता है।
• रोकथाम _ इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा और गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर 250 मि.ली. प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें।
● बीन बीटल _इस कीट का प्रौढ़ तांबे के रंग जैसा होता है। शरीर का आवरण कठोर और उस पर 16 काले निशान होते हैं। यह कीट पौधे के कोमल भागो को खाता है।
रोकथाम_ इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा और गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर 250 मि.ली. प्रति पम्प में डालकर फसल में तर-बतर का छिड़काव करें।
चूर्णी फफूंदी रोग_ यह एक फफूंदी जनित रोग है। इसकी फफूंदी जड़ के अलावा पौधे के प्रत्येक भाग को प्रभावित करती हैं। पत्तियां पीली पड़कर मर जाती हैं। कलियां या तो बनती नहीं है यदि बनती भी हैं तो बहुत छोटी, तथा उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
रोकथाम _ इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र को माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर अच्छी तरह से मिश्रण तैयार कर 250 मि.ली. को प्रति पंप में डालकर फसल में तरबतर कर छिड़काव करें।
◆ तुड़ाई_ जुलाई-अगस्त में बोई जाने वाली फसल में नवंबर-दिसंबर में फूल निकल आता है फूल निकलने के 2 से 3 सप्ताह बाद फलियों की पहली तुड़ाई की जा सकती है। फलों की तुड़ाई में देरी नहीं करनी चाहिए अन्यथा फलियाँ कठोर हो जाती हैं, जिसके कारण उनका बाजार में उचित भाव नहीं मिल पाता है, क्योंकि उनसे स्वादिष्ट सब्जी का निर्माण नहीं होता है।