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             हल्दी की खेती
◆ महत्त्व _ किसान भाइयों जैसा कि हम जानते हैं कि हल्दी एक अत्यंत उपयोगी मसाला है। भारत में यह सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाला मसाला है। यह औषधियुक्त भी होता है। इसका उपयोग शाक, अचार, दाल आदि में होता है। इसके साथ-साथ सभी शुभ अवसरों पर इसका उपयोग किया जाता है। किसान भाइयों इसके कागज का उपयोग विदेशों में मिट्टी की क्षारीयता का पता लगाने के लिए किया जाता है। हल्दी के पीले रंग से एक वाष्पशील तेल निकलता है, जिसे टायिरॉल कहते हैं। सूखी हल्दी में लगभग 5-6% तक वाष्पशील तेल होता है। भारत से हल्दी का निर्यात श्रीलंका, दक्षिणी अफ्रीका, ईरान, संयुक्त राज्य अमेरिका आदि को किया जाता है, जिससे विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है।
◆ जलवायु _ हल्दी वैसे तो गर्मतर जलवायु का पौधा है, परंतु समुद्र तल से 1500 मीटर की ऊंचाई तक के स्थानों पर भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी वृद्धि पर तापमान का विषय प्रभाव पड़ता है, जब वायुमंडल का तापमान 22℃ से कम हो जाता है तब इसकी बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हल्दी की फसल पकने से 1 माह पूर्व सूखा वातावरण अधिक उपयुक्त रहता है। इसे अधिकतर छाया देने वाले वाली फसलों के साथ बोया जाता है।
◆ किस्में (Varietises) हल्दी की किस्मों को निम्न तीन भागों में विभक्त किया जाता है-
(i) अल्पकालीन किस्में_ ये किस्में सात महीने में तैयार हो जाती है। इस वर्ग के अंतर्गत निम्न किस्में आती हैं-
अमलापुरम (सी.ए.-73), वन्द्रोगैमे (सी.ए.69)।
दीर्घकालीन किस्में_ ये किस्में नौ महीने में तैयार हो जाती हैं। इस वर्ग के अन्तर्गत निम्नलिखित किस्में आती हैं-
आरमूर ( सी.एल.एल.324), टेकुरपेट (सी.एल.एल.326), डुग्गीरैला (सी.एल.एल.325), माइडयूकर (सी.एल.एल.327)
(ii) मध्यकालीन किस्में _ये किस्मे आठ महीने में तैयार हो जाती है। इस वर्ग में निम्न किस्में आती हैं-
अमृत पानी कोठपेटा (सी.एल.एल.317)
● विभिन्न राज्यों में उगाई जाने वाली किस्में-
• कर्नाटक – मुडगा, बालगा, येलचागा।
• महाराष्ट्र – लौखेड़ी, सोनी।
• तमिलनाडु – चिन्नानादन, पेरुनादन, मद्रास मजल।
• उड़ीसा – गौतम।
• उत्तर प्रदेश – बरुआ सागर।
● उन्नत किस्में_
हल्दी की अनेक उन्नत किस्में विकसित की गई हैं जिनके गुणों का उल्लेख नीचे दिया गया है-
◆ सुगन्धा _ यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है। इसके प्रकन्द मध्यम आकार के होते हैं, जो गहरे नारंगी रंग के होते हैं, जिनसे विशेष गन्ध आती है। प्रति हैक्टेयर 4-6 टन तक मिल जाती है।
◆ स्वर्णा _ यह भी एक अधिक उपज देने वाली किस्म है। इसके प्रकन्द मध्यम आकार के होते हैं जो हरे रंग के होते हैं। यह प्रकन्द विगलन की प्रतिरोधक किस्म है। इसके प्रकन्द में 7% तेल होता है। यह किस्म 210 दिन में तैयार हो जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 4-6 टन उपज मिल जाती है।
◆ रोमा _यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है। इसके प्रकन्द मध्यम आकार के होते हैं। 253 दिन में फसल खुदाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके प्रकन्दों में 4.2% तेल पाया जाता है। इससे प्रति हेक्टेयर 6.43 टन उपज मिल जाती है।
◆ सुदर्शन _ यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है। इसके प्रकन्द घने और छोटे आकार वाले होते हैं। यह किस्म 190 दिन में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 7.29 टन मिल जाती है।
◆ नवीनतम किस्में (Latest Varieties);-
रश्मि, बी.एस.आर.1
◆ भूमि एवं उसकी तैयारी _ अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ मटियार दोमट अथवा बलुई दोमट भूमि में हल्दी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सभी प्रकार की भूमियों में जल निकास की उचित व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। भारी मृदाओं में जहाँ जल निकास का उचित प्रबन्ध नहीं होता है, हल्दी की खेती मेड़ों पर की जाती है। हल्दी के लिए पर्याप्त और उर्वर भूमि की आवश्यकता पड़ती है। अप्रैल या मई में मिट्टी पलटने वाले हल से दो बार जुताई करें। इसके बाद 5-7 बार देशी हल से जुताई करें ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाये। और गाँठों को फेलने का अवसर प्राप्त हो सके। जुताई के बाद 4 x 2 मीटर या 3 x 3 मीटर की छोटी-छोटी क्यारियों में बाँट लें।
बुवाई _ हल्दी की बुवाई का उपयुक्त समय अप्रैल से जुलाई तक होता है। इसके प्रवर्धन के लिए इसके प्रकन्द काम में लाए जाते हैं। जो दो प्रकार के होते हैं-
01.अंडाकार या गल प्रकन्द जिन्हें मूल प्रकन्द कहते हैं।
02. लंबे पतले प्रकंद जिन्हें लंबे प्रकंद कहते हैं।
दोनों ही प्रकार के प्रकन्दों का उपयोग बुवाई के लिए किया जाता है, परंतु महाराष्ट्र और उड़ीसा में किए गए प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि बीज के लिए मूल प्रकन्द अच्छा रहता है। कभी-कभी प्रकन्दों के टुकड़े कर लिए जाते हैं। प्रति हेक्टेयर 12-15 कुन्तल कच्चे प्रकन्दो की आवश्यकता होती है। किसान भाइयों बुवाई के लिए स्वस्थ कन्दों का उपयोग आवश्यक है। प्रत्येक गाँठ में कम से कम दो आंखें और उनका वजन कम से कम 25 ग्राम होना चाहिए। बुवाई से पूर्व प्रकन्दों को एग्लाल या सरेसन के 2 प्रतिशत घोल से उपचारित कर लेना चाहिए। हल्दी की रोपाई अप्रैल से जुलाई तक की जाती है। पंक्तियों से पंक्तियों और बीज से बीज की दूरी क्रमश: 45-50 x 20-25 सेमी रखी जाती है। कहीं-कहीं से मेंड़ बनाकर भी बोया जाता है। बोने के 15-20 दिन में नये कल्ले फूट आते हैं।
• बुवाई या तो चौरस क्यारियों में या फिर मेड़ो पर करते हैं। पंक्तियों की आपसी दूरी 30 सेमी एवं पौधों की आपसी दूरी 20 सेमी रखते हैं। प्रकन्दो को देशी हल से बनाये गए उथले कूंड़ों में रखकर मिट्टी से ढक देते हैं। यदि गाँठों को भी टाट या बोरे में 24 घण्टे लपेटकर रख दिया जाए तो अंकुरण सुगमता से हो जाता है।
◆ खाद और उर्वरक_ हल्दी भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व खींचती है। 300 कुन्तल गोबर की खाद या कंपोस्ट खेत में समान रुप से डालकर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें। इसके अलावा 200 किलोग्राम अमोनियम सल्फेट, 200 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश बाई के पूर्व खेत में डालते हैं। इसके 40 दिन बाद 150 किलो अमोनियम सल्फेट और 60-80 दिन बाद 65 किलो यूरिया उपरिवेशन (टॉप ड्रेसिंग) के रूप में फसल में डालते हैं।
◆ सिंचाई _ अप्रैल में बोई गई फसल की गर्मियों में 10-15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते हैं। प्रकन्द निर्माण के समय भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा उपज में भारी कमी हो जाती है।
◆ जल निकास _ हल्दी की फसल में जल निकास का प्रबंध अनिवार्य है। खेत में पानी भरे रहने से प्रकन्दों का समुचित विकास नहीं हो पाता है। उचित जल निकास हेतु खेत के चारों और 50 सेमी चौड़ी 60 सेमी गहरी नाली बना देनी चाहिए।
◆ निराई गुड़ाई _ हल्दी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो भूमि से पोषक तत्व, नमी, स्थान, धूप आदि के लिए फसल से प्रतिस्पर्धा करते हैं। अतः इनकी रोकथाम के लिए 2-3 बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। साथ ही साथ मिट्टी भी चढ़ा देनी चाहिए ताकि प्रकन्दों का विकास अच्छी तरह से हो सके।
◆ खुदाई _ हल्दी की फसल लगभग 9-10 महीने में जब पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है, तो खोदने योग्य हो जाती हैं। गाँठो की खुदाई के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि गाँठे कटने न पाए।
◆ उपज _ हल्दी की उपज, भूमि की उर्वरा शक्ति, उगाई जाने वाले किस्म एवं फसल की देखभाल पर निर्भर करती है। प्रति हेक्टेयर 200-250 कुंतल कच्ची हल्दी और इससे 40-50 कुंतल सूखी हल्दी प्राप्त होती है।
  ★ कीट नियंत्रण ★
(i) तना बेधक_ यह कीट पौधे के नये बढ़ते भागों पर लगता है और उनका रस चूसता है जिसके कारण वह सूख जाते हैं।
• रोकथाम – कीट पग्रसित तनों को काट कर नष्ट कर दें।
(ii) थ्रिप्स_ ये छोटे-छोटे कीड़े पत्तियों व अन्य मुलायम भागों का रस चूसते हैं। फलतः पौधे की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
• रोकथाम – इन कीटों की रोकथाम के लिए 0.03 प्रतिशत एल्ड्रिन 20 ई.सी. का छिड़काव चार बार एक-एक सप्ताह के अंतर पर करते हैं।
   ★ रोग नियंत्रण ★
(i) प्रकंद एवं जड़ विगलन _ इस रोग के प्रकोप के कारण पौधे की नीचे की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। बाद में पूरा पौधा पीला पड़कर मुरझा जाता है। पौधों को खींचने पर वह प्रकन्द से जुड़े स्थान से सुगमता से टूट जाता है।बाद में पूरा प्रकन्द सड़ जाता है। इस रोग के बीजाणु भूमि में विद्दमान रहते हैं और बीज के रूप में प्रयुक्त प्रकन्द भी बीजाणु अपने साथ ले जाते हैं। इसलिए रोग से प्रभावी बचाव हेतु दोनों को ही उपचारित करना पड़ता है।
रोकथाम – भूमि में चेस्टनट क्म्पानेण्ट के 0.6 प्रतिशत घोल को आधा लीटर प्रति पौधे की दर से देते हैं।
• बीज प्रकन्दों को 0.25 प्रतिशत सांद्रता को घुलनशील सेरेसन में बुवाई से पूर्व 30 मिनट तक या 0.3 प्रतिशत विटीग्राम से 1 घंटे तक उपचारित करते हैं।
(ii) पूर्णचित्ती रोग _ इस रोग के कारण पत्तियों के ऊपरी सिरों पर भूरे नीले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में बढ़कर पूरी पत्ती में फैल जाते हैं।
• रोकथाम – 0.2% ब्लाइटॉक्स घोल का छिड़काव करना चाहिए।