केले की खेती
◆ महत्व _ किसान भाइयों फलों में केले का प्रमुख स्थान है क्योंकि इसमें अनेक पोषक पदार्थ, खनिज लवण तथा विटामिन ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ एवं ‘डी’ आदि भी बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं। जिनका हमारे भोजन में बड़ा महत्व है। केला स्वादिष्ट, व मीठा होने के कारण इसे बच्चे तथा बूढ़े सभी पसंद करते हैं। केला धार्मिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसके पत्ते एवं फल देव पूजा में प्रमुख स्थान रखते हैं।
◆ जलवायु _ किसान भाइयों केले को उष्णप्रदेशीय फल माना जाता है। फलों की अच्छी उपज के लिये गर्म तथा नम जलवायु की आवश्यकता होती है। केले की उत्तम उपज के लिये 175 सेमी से 200 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। केला विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न जलवायु में उगाया जा सकता है। समुद्र की सतह से 1000 मीटर ऊंचे स्थानों तक में केले की खेती होती है। लेकिन जिन स्थलों में तेज धूप तथा अधिक वर्षा होती है वहां केला अपेक्षाकृत बहुत अच्छी उपज देता है।
◆ भूमि _ केले के लिए गहरी, उपजाऊ, दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। भारी तथा नम भूमि जो तालाबों तथा नदियों के किनारे पाई जाती है, में केला अच्छी फसल देता है।
 ◆ जातियां_ केले की जातियां निम्नलिखित हैं-
◆ बसराई_ यह प्रजाति मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र गुजरात बिहार व कर्नाटक की जलवायु के लिए उपयुक्त पाई गई है। इस प्रजाति का पौधा बोने किस्म का होता है। फल बड़े, मटमैले पीले या हरापन लिये होते हैं।पत्तियां चौड़ी होती हैं।
◆ रोबस्टा_ इसे बांबेग्रीन, हरीछाल, बोजीहाजी आदि नामों से अलग-अलग राज्यों में उगाया जाता है। पौधों की ऊंचाई 3-4 मीटर होती है, तना औसत मोटाई व हरे रंग का होता है। इसके बंच का वजन औसतन 25-30 किलोग्राम होता है। फल मीठे व दिखने में सुंदर होते हैं। फल पकने पर चमकीले पीले रंग के हो जाते हैं।यह प्रजाति लीफ स्पाट बीमारी से कम प्रभावित होते हैं।
◆ पूवन- इसे चीनी चंपा, लाल वेल्वी और कदली कोडन के नामों से जाना जाता है। इस किस्म का पौधा बेलनाकार व मध्यम ऊंचाई का होता है। रोपाई के 9-10 माह बाद निकलने शुरू हो जाते हैं। फल छोटे, बेलनाकार व उभरी चोंच वाले होते हैं।
◆ रजेली _ इसे सब्जी केला भी कहते हैं। इसका पौधा 10-12 फुट लम्बा होता है। तना काफी मजबूत होता है।फल मोटे, नुकीले और हरे-पीले रंग के होते हैं।
◆ प्रवर्धन तथा पुत्तियों का रोपण _ केले का प्रवर्धन पुत्तियों द्वारा होता है। यह दो प्रकार की होती हैं- (1) तलवार पुत्ती, (2) चौड़ी पुत्ती वाली पुत्ती (जल पुत्ती)।
• प्रवर्धन के लिये तलवार पुत्ती का चुनाव करना चाहिए। यह लंबी, संकरी तथा नुकीली होती है। इसका तना नीचे मोटा तथा ऊपर पतला होता चला जाता है। साधारणत: 60 से 90 सेमी ऊंचाई की पुत्तियाँ उपयुक्त होती हैं।
◆ केले के पौधे खेत में वर्षा ऋतु में जुलाई से लेकर सितंबर तक रोपे जाते हैं। केले को गड्ढे या नालियों में रोपना चाहिए। केला रोपने के लिए मई में 1/2 मीटर व्यास के 1/2 मीटर गहरे गड्ढे 2 x 1.5 मीटर की दूरी पर खोद लेना चाहिए। और उन्हें गोबर की खाद में मिट्टी मिलाकर जुलाई के प्रारंभ में भर देना चाहिये। यदि नालियों में केला रोपना हो तो 1/2 मीटर चौड़ी और 50 सेमी गहरी नालियां 2 मीटर की दूरी पर खोदकर इनमें प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल गोबर की खाद डाल देनी चाहिए। इसके बाद गड्ढों में अथवा नालियों के बीच में केले की पुत्तियाँ 1.5 मीटर की दूरी पर रोप देनी चाहिए। रोपाई से पहले प्रत्येक पुत्ती को तेज औजार से काटकर भूमिगत तने के कटे हुए भाग को सेरेसान या एग्लाल .25% घोल में एक मिनट तक डुबा लेना चाहिए।
• फरवरी या मार्च का समय भी खेत में केला रोपने के लिये अच्छा रहता है परंतु वहां सिंचाई की पूर्ण सुविधाएं होनी चाहिए।
◆ खाद एवं उर्वरक _ किसान भाइयों केले के प्रत्येक पौधे के लिये प्रतिवर्ष 250 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फॉस्फोरिक अम्ल तथा 200 ग्राम पोटाश की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन चार बराबर मात्रा में अगस्त, सितंबर, मार्च एवं अप्रैल में देनी चाहिये तथा पुत्तियाँ लगाने के 2 या 3 दिन पहले फॉस्फोरिक अम्ल की पूरी मात्रा गड्ढे में मिला दें। पोटाश की आधी मात्रा नाइट्रोजन के साथ अगस्त में तथा शेष आधी मात्रा अप्रैल में देनी चाहिये। केले की अधिकतम उपज लेने के लिए 18 किग्रा गोबर की खाद प्रति पौधा लगाते समय तथा 2.250 किग्रा अंडी की खली प्रति पौधा टॉप ड्रेसिंग द्वारा तीन बार देनी चाहिए।
◆ निकाई गुड़ाई तथा सिंचाई _ किसान भाइयों केले की पुत्तियाँ रोपने के बाद खेत में सिंचाई कर देनी चाहिए। इसके बाद खरपतवारों की रोकथाम के लिए केले के खेत में कई बार निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए। इससे जड़ों के फैलाव में सहायता मिलती है। जड़ के समीप निकली हुई पत्तियों को खुरपी से पीट देना चाहिये तथा केवल एक पुत्ती छोड़ देनी चाहिये जिससे अगली फसल ले सकें। किसान भाइयों फल आने पर लकड़ी का एक आलंबन (टेका) लगा देना चाहिये। गुच्छा आने के समय 20-25 सेमी मिट्टी भी चढ़ा देनी चाहिए। वर्षा ऋतु के बाद जाड़े की ऋतु में 25-30 दिन के अंतर से सिंचाई करनी चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में 15-20 दिन के अंतर से सिंचाई करनी चाहिए। भूमि को हमेशा नाम रखना चाहिए।
◆ कीट तथा बीमारियां एवं रोकथाम _ केले के पौधे पर मुख्य रुप से निम्न कीट आक्रमण करते हैं-
(i) तना छेदक _ इस कीट की सूंडी पौधे के तने में छेंद करती हैं जिनके कारण सड़ाव हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए पेरिस ग्रीन को 6 गुना आटा मिलाकर पॉइजन बेट्स के रूप में छिड़क देना चाहिए। प्रभावित पौधों में प्रति पौधा 30-50 ग्राम एल्ड्रिन धूल भूमि में मिलानी चाहिए।
(ii) फल छेदक _ यह कीट फलों में नीचे की ओर से छिद्र करता है तथा फलों के अंदर सुरंग बनने के कारण फली सड़ जाती है। किसान भाइयों इसकी रोकथाम के लिए 0.25% सुमिसीडीन का छिड़काव करना चाहिए।
(iii) मूल छेदक सूत्र कृमि _ यह कीड़ा जड़ों पर आक्रमण करता है तथा जड़ों पर छोटे-छोटे गुच्छे बन जाते हैं। जिसके कारण सर्कस वृद्धि रुक जाती है। किसान भाइयों इसकी रोकथाम के लिए प्रतिवर्ष खेत के जुताई करना तथा सही फसल चक्र अपनाना चाहिए।
◆ किसान भाइयों केले के पेड़ पर निम्नलिखित बीमारियों का प्रकोप हो जाता है-
(i) गुच्छा शीर्ष रोग या (बन्ची टाप) _ इस रोग का कारण एक विचित्र किस्म का विषाणु होता है। अति तीव्र आक्रमण के समय इसकी पत्तियां छोटी तथा पतली हो जाती हैं, किनारे ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं, पत्तियां खड़ी दिखाई देती हैं तथा पौधे के ऊपरी सिरे की पत्तियाँ गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। यह विषाणु माहू द्वारा फैलाया जाता है।
• किसान भाइयों इसकी रोकथाम के लिये माहू कीट के नियंत्रण हेतु डाईमेक्रान 250 मिली. साइपरमेथ्रिन 1.5 लीटर, थायोडान 1 लीटर में से किसी भी एक रसायन को 1,000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़कना चाहिए।
• किसान भाइयों प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए तथा प्रभावित बाग से संकर नहीं लेने चाहिए।
(ii) पनामा रोग _ यह रोग पौधों को बहुत अधिक हानि पहुंचाता है। पौधा जब पांच माह का हो जाता है तो यह रोग अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। सर्वप्रथम नीचे की पुरानी पत्तियों पर हल्की पीली धारियां बनती हैं तथा पहले प्रकार के लक्षण में पत्ती पीली होकर लटक जाती हैं तथा दूसरे प्रकार के लक्षणों में पत्ती हरी रहती है परंतु लटक जाती है।
प्रभावित पौधों की नई पत्तियां दागदार, पीली तथा सिकुड़नदार होती हैं। यह रोग ‘फ़्यूजेरियम-आक्सीस्पोरियम’ नामक फफूँदी द्वारा होता है। यह पानी द्वारा फैलकर पौधों के संपर्क में आ जाता है।
किसान भाइयों इसकी रोकथाम के लिए बाविस्टिन कि 10 से 20 ग्राम मात्रा 10 लीटर पानी में घोलकर मिट्टी में मिलाना चाहिये। नत्रजन की मात्रा कम कर देनी चाहिये तथा प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए और केले के बागों में नीम की खली 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिए।
(iii) फल विगलन या झुलसा (एंथ्रेक्नोज) _ यह ग्यियोस्पोरियम फ्यूजेरम द्वारा उत्पन्न होता है। यह नम तथा बरसात में काफी सक्रिय रहता है। इस रोग में फल, फूल तथा पत्तियां प्रभावित होती हैं। सर्वप्रथम पत्तियों पर काले रंग के धब्बे बनते हैं, फूल काले पड़कर सूख जाते हैं तथा गिर जाते हैं। फलों के काले धब्बे फल की वृद्धि के समय बढ़ते रहते हैं तथा फल सूखता जाता है। यह रोग ‘बसराई’ तथा ‘हरी छाल’ नामक जातियों में अधिक लगता है।
• किसान भाइयों इस रोग की रोकथाम के लिए फफूँदी नाशको का प्रयोग वर्ष में 2-3 बार करना चाहिए। प्रथम छिड़काव फूल आने के 2 सप्ताह पूर्व, तथा दूसरा छिड़काव 3 माह बाद करना चाहिये। इसके लिए कॉपर आक्सीक्लोराइड के 0.3% के घोल का छिड़काव भी उचित रहता है। गुच्छा बनते समय 30-75 ग्राम बाविस्टिन को 10 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। प्रभावित पौधों को नष्ट कर देना चाहिए।
(iv) अन्तर्विगलन (हार्ट रॉट) _ किसान भाइयों जैसा नाम से ही प्रतीत होता है कि अंदर की पत्तियां गल जाती हैं तथा नई पत्तियों के निकलने में रुकावट पैदा होती है। पतियों की वृद्धि के साथ-साथ अंदर का गलना भी बढ़ता रहता है तथा पूर्ण फूल नहीं निकल पाता है। इस रोग का कारण भी एक फफूँदी होता है। किसान भाई इसकी रोकथाम हेतु पौधों को उचित दूरी पर लगाना चाहिए तथा जल निकास का उत्तम प्रबंध रखना चाहिए। तथा फल विगलन हेतु प्रयोग की जाने वाली दवा का प्रयोग करना चाहिए।
◆ फूलना तथा फलना _ दक्षिणी व पश्चिमी भारत में केले की अगेती किस्में रोपाई के 14 महीने पश्चात पककर तैयार हो जाती है तथा दूसरी फसल 21-24 महीने के बीच तैयार होती है। एक गुच्छा आने के बाद उसी पेड़ पर दूसरा गुच्छा नहीं आता है अतः घैर तोड़ लेने के बाद उस पेड़ को भूमि की सतह से काट देना चाहिए। हमारे प्रदेश में हरी छल का केला लोग रूचि के साथ खाते हैं। यह केला बसराई किस्म से ही है। इस केले की पौध को रोपने के लगभग 10-12 महीने बाद उसमें फूल निकलता है और उसके लगभग 4 महीने बाद फल काटे जाने योग्य जाते हैं।
◆ फलों की कटाई तथा उपज _ केले के फल पेड़ पर गुच्छों के रूप में निकलते हैं। केले के गुच्छों को ही घैर कहते हैं। घैर को इस प्रकार पेड़ से काटा जाता है कि घैर के साथ लगभग 30 सेमी डण्ठल भी कट जाये।
• केले के एक पेड़ से केवल एक ही घैर मिलती है। इस प्रकार एक हैक्टेयर में लगभग 3333 घैर निकलती हैं। एक घैर में 50 से लेकर 100 फलियां तक लगती हैं। किसान भाइयों इस प्रकार प्रति हेक्टेयर में 250 कुंतल केले की प्राप्ति होती है।
◆ फलों को पकाना _ केले के फल को पेड़ से कच्चा ही तोड़ लिया जाता है। केले के गुच्छे को पकाने के लिए उसके कटे डण्ठल पर बुझा हुआ चूना या मोम या वैसलीन लगा देना चाहिये। इसके अतिरिक्त गुच्छे को बंद कमरे में पुआल, बोरा या केले की सूखी पत्तियों के बीच ढक कर रख देते हैं।
• किसान भाइयों आजकल अधिकतर केले को कार्बाइड रसायन से पकाते हैं।

1 Comment

Sunil बाजपेई · November 11, 2018 at 11:32 am

Hamare Ghar me lage kele ka fal kadwa or khatmitha Kyu hai.es samasya ka nidaan Kya hai.

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