जैविक खेती क्यों आवश्यक ?

साठ के दशक से पूर्व खेती काफी हद तक जैविक आधारित थी। परंतु उस समय की परिस्थिति कुछ ऐसी थी हमें हरित क्रांति की ओर अग्रसर होना पड़ा। हरित क्रांति को मिली शुरुआती सफलता के बाद यह स्पष्ट होने लगा कि इस प्रकार की कृषि पद्धति से हमारे प्राकृतिक संसाधनों, जैसे – मृदा, पानी, जैव-विविधता और मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। किसी समय में उपजाऊ रहे क्षेत्रों की इस पद्धति से खेती करने पर भू-क्षरण या सेलिनाइजेशन इत्यादि की वजह से उपजाऊ शक्ति कम हो गयी। पानी के स्रोत या तो रसायनों के प्रयोग से प्रदूषित हो गये या सिचाई के लिए उनका अत्यधिक दोहने पर लिया गया। कई जंगली एवं घरेलू पेड़-पौधों की प्रजातियां एवं जीव-जंतु समाप्ति की कगार पर पहुंच गये। साथ ही कीटनाशी एवं रसायनों के अवशेषों का खाद्य पदार्थों एवं पेयजल में आ जाने से मनुष्य के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचने लगा। इस पद्धति से खेती करने पर मृदा, पर्यावरण एवं उत्पादों के सेवन से मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान के मद्देनजर जैविक खेती की बात उभर कर आयी क्योंकि इस पद्धति से खेती करने पर जहां मृदा क्षरण एवं मृदा की उत्पादकता को बनाये रखा जा सकता है। वहीं सिंचाई हेतु प्रयोग होने वाले पानी का प्रदूषण लगभग न के बराबर होता है। साथ ही साथ इस हमसे वन्य जीव-जंतुओं को सुरक्षा मिल रही है। जैव विविधता में अभिवृद्धि होती है तथा ऐसे क्षेत्रों का विकास होता है जहां पशुओं का अच्छा चारागाह मिलता है। उत्पाद गुणवत्ता एवं स्वाद में अच्छे होते हैं तथा इनकी भंडारण क्षमता अधिक व उच्च गुणवत्ता वाली होती है।

    जैविक खेती –

जैविक खेती एक प्राचीन कृषि पद्धति है, जो भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखने के साथ-साथ पर्यावरण की शुद्धता को बनाए रखती है। मिट्टी की जलधारण क्षमता को बढ़ाती है। इसमें रसायनों का प्रयोग कम होता है और कम लागत में गुणवत्तापूर्ण पैदावार होती है।

 जैविक खेती के लाभ –

जैविक खेती से लाभ :- जैविक खेती किसान एवं पर्यावरण के लिए लाभ का सौदा है। जैविक खेती से किसानों को कम लागत में उच्च गुणवत्ता पूर्ण फसल प्राप्त हो सकती है। इसके अन्य लाभ निम्नलिखित हैं –

01. जैविक खेती से भूमि की गुणवत्ता में सुधार होता है। रासायनिक खादों के उपयोग से भूमि बंजरपन की ओर बढ़ रही है। जैविक खादों से उसमें जिन तत्वों की कमी होती है वह पूर्ण हो जाती है एवं उसकी गुणवत्ता में अभूतपूर्व वृद्धि हो सकती है।

02. जैविक खादों एवं जैविक कीटनाशकों के उपयोग से जमीन की उपजाऊपन में वृद्धि होती है।

03. जैविक खेती में सिंचाई की कम लागत आती है क्योंकि जैविक खाद जमीन में लंबे समय तक नमी बनाए रखते हैं। जिससे सिंचाई की आवश्यकता रासायनिक खेती की अपेक्षा कम पड़ती है।

04. रासायनिक खादों के उपयोग से जमीन के अंदर फसल की उत्पादकता बढ़ाने वाले जीवाणु नष्ट हो जाते हैं जिस कारण फसल की उत्पादकता कम हो जाती है। जैविक खाद का उपयोग कर पुनः उस उत्पादकता को प्राप्त किया जा सकता है।

05. जैविक खेती से भूमि की जल धारण शक्ति में वृद्धि होती है। रासायनिक खाद भूमि के अंदर के पानी को जल्दी सोख लेते हैं जबकि जैविक खाद जमीन की ऊपरी सतह में नमी बना कर रखते हैं जिससे जमीन की जल धारण शक्ति बढ़ती है।

06. किसान की खेती की लागत रासायनिक खेती की तुलना में करीब 80% कम हो जाती है। इन दिनों रासायनिक खादों की कीमतें आसमान छू रही है जैविक खाद बहुत ही सस्ते दामों में तैयार हो जाता है।

07. जैविक खेती से प्रदूषण में कमी आती है रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों से पर्यावरण प्रदूषित होता है। खेतों के आसपास का वातावरण जहरीला हो जाता है जिससे वहां के वनस्पति, जानवर एवं पशु-पक्षी मरने लगते हैं। जैविक खादों एवं कीट नाशकों के प्रयोग से वातावरण शुद्ध होता है।

08. जैविक खेती से उत्पादों की गुणवत्ता रासायनिक खेती की तुलना में कई गुना बेहतर होती है एवं ऊंचे दामों में बाजार में बिकते हैं।

09. स्वास्थ्य की दृष्टि से जैविक उत्पाद सर्वश्रेष्ठ होते हैं एवं उनके प्रयोग से कई प्रकार के रोगों से बचा जा सकता है।

10. जैविक उत्पादों की कीमतें रासायनिक उत्पादों से कई गुना ज्यादा होती हैं जिससे किसानों की औसत आय में वृद्धि होती है।

जैविक खादों के प्रकार :

जैविक खाद बनाने के लिए प्रयुक्त पदार्थ एवं बनाने की विधि के आधार पर इन्हें विभिन्न इनाम दिया गया है। कुछ महत्वपूर्ण जैविक खाद निम्नांकित है-

गोबर खाद –

पशुओं के मल-मूत्र एवं बिछावन के अपघटन के उपरांत प्राप्त खाद को गोबर की खाद कहते हैं। इसमें सामान्यतया: 0.5% नत्रजन 0.2% फास्फोरस एवं 0.5% पोटाश पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें सूक्ष्म तत्व अल्प मात्रा में विद्यमान रहता है। गोबर की खाद बनाने के लिए पशुशाला के पास 20’x’5’x3′ आकार का गड्ढा खोद लेते हैं। इसके आधे हिस्से में गोबर, मूत्र एवं बिछावन के मिश्रण को डालते रहते हैं। जब यह डेढ़ फीट की ऊंचाई तक भर जाय तब ऊपरी भाग को मिट्टी से ढक देते हैं। अब गड्ढे के शेष हिस्से को गोबर, मूत्र एवं बिछावन के मिश्रण से भरते हैं। जब तक यह हिस्सा भरता है तब तक पहले आधे हिस्सा का गोबर खाद में बदल जाता है जिसका खेती में प्रयोग कर लेते हैं। यदि गोबर का प्रयोग बाद में करना हो तो इसमें थोड़ा जिप्सम मिला देते हैं।

● कंपोस्ट : पौधों के अवशेष, घर का कूड़ा-करकट, कचरा, पशुओं के गोबर एवं मूत्र तथा मनुष्य के मल आदि को सूक्ष्मजीवाणुओं द्वारा विशेष परिस्थितियों में विच्छेदन उपरांत प्राप्त खाद को कंपोस्ट कहते हैं कचरे की गुणवत्ता के आधार पर इसमें सामान्यत: 0.4 – 2% नत्रजन, 0.4 – 1% फास्फोरस एवं 0.5 – 3% पोटाश पाया जाता है। केवल मानव मल से बने कंपोस्ट में 5.5% नत्रजन, फास्फोरस प्रतिशत, 2% पोटाश पाया जाता है। हमारे देश में सामान्यता इन्दौर विधि, बंगलौर विधि, ऐडको विधि तथा उत्प्रेरक कम्पोस्ट विधि से कम्पोस्ट बनाया जाता है। कम्पोस्ट में स्फूर की मात्रा बढ़ाने के लिए इसमें रॉक फास्फेट एवं स्फूर विलायक जीवाणु का कलचर मिलाया जाता है। इस तरह बने कम्पोस्ट को इनरिच्ड कम्पोस्ट की संज्ञा दी जाती है।

वर्मी कम्पोस्ट

वर्मी कम्पोस्ट यानी केचुआ के द्वारा गोबर एवं कार्बनिक कूड़ा-कचरा के खाने के बाद उसके पाचन तंत्र से गुजरने से जो अपशिष्ट पदार्थ मल के रूप में निकलता है, फसलों के लिए काफी लाभदायक होता है। इसे ही वर्मी कम्पोस्ट कहा जाता है। इसमें जैविक खाद एवं केंचुआ का उत्पाद साथ-साथ होता है।

वर्मी कंपोस्ट उत्पादन के संसाधन वर्मी कंपोस्ट (केंचुआ खाद) तैयार करने के लिए निम्न संसाधनों की आवश्यकता होती हैं-

केंचुआ :-  वर्मी कम्पोस्ट बनाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त प्रजाति इसिनीया फोइटिडा है। इसका शरीर 4-5 इंच लंबा, पतला, गोल तथा दोनों सिरों पर नुकीला होता है। इनका वजन लगभग 0.5 से 1.5 ग्राम तक होता है। रंग लालिमा लिए हुए बैंगनी होता है। ये गोबर तथा कार्बनिक अवशेष खाते हैं तथा मिट्टी पसंद नहीं करते हैं। इनकी सक्रियता के लिए मध्यम तापक्रम एवं आद्रता ज्यादा अनुकूल रहती है। इनका जीवन चक्र 170 से 180 दिन का होता है तथा जन्म के 40 45 दिनों के बाद यही प्रजनन योग्य हो जाते हैं। अंधेरे वातावरण में ये अपना भोजन ग्रहण एवं प्रजनन करते हैं। एक केंचुआ प्रतिदिन 1.5 ग्राम से लेकर 5 ग्राम तक भोजन ग्रहण करता है।

गोबर तथा कार्बनिक अवशेष :- वर्मी कंपोस्ट बनाने के लिए कम से कम 20 दिन का पुराना गोबर (ताजा गोबर कदापि नहीं), गोबर गैस से निकली स्लरी, बची हुई शाक-सब्जियां, घास-फूस एवं आसपास के जलाशय से प्राप्त जलकुंभी, कूड़ा-कचरा इत्यादि। ये सभी पदार्थ 20 दिन पुराने गोबर के साथ मिलाकर छोड़ दिया जाता है।

पानी  :- केंचुओं की वृद्धि तथा उन्हें जीवित रखने के लिए नमी बहुत आवश्यक होती है जिसके लिए पानी की आवश्यकता पड़ती है। एक (3 x 2.5 x 10) घन फीट के टैंक के लिए प्रति टैंक लगभग 10 – 15 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।

औजार :- पंजा, फावड़ा, परात, टोकरी, बाल्टी, प्लास्टिक-पाइप, 2 मि.मी. का चलना आदि की आवश्यकता वर्मी कम्पोस्ट की इकाई स्थापित करने के लिए होती है।

उपयुक्त स्थान एवं छप्पर :- केंचुओं के संवर्धन के लिए उपयुक्त नमी तथा सामान्य तापमान जरूरी है। अतः इसके लिए एक छप्पर अथवा शेड तैयार करनी पड़ती है। इस प्रकार घास-फूस तथा बांस बल्ली की सहायता से छप्पर या शेड बनाई जा सकती है। यह इतना ऊंचा होना चाहिए कि इसमें खड़ा होकर कार्य किया जा सके।

वर्मी कंपोस्ट उत्पादन की विधि : वर्मी कंपोस्ट बनाने का कार्य मुख्यत: टैंक विधि तथा सतह विधि से किया जाता है।

  टैंक विधि

सर्वप्रथम उपयुक्त स्थान पर छप्पर आदि बना लेने के बाद इसके छाया में 3 फीट चौड़ा, 2.5 फीट ऊंचा एवं 10 फीट लंबा टैंक का निर्माण किया जाता है। टैंक या हौद का तल पक्का कर लें तो ज्यादा अच्छा रहता है जिससे केंचुए जमीन में नीचे न जा सकें। एक छप्पर अथवा शेड के नीचे बनाए जाने वाले टैंक की संख्या एक से अधिक भी हो सकती है।

• अब प्रत्येक टैंक में नमीयुक्त नाद का जूठन या वानस्पतिक कचरे को 4 इंच बिछाने के बाद उस पर 20 दिनों का अच्छी प्रकार पानी मिला हुआ गोबर से टैंक भर दिया जाता है। इस गोबर पर प्रति टैंक 3,000 केंचुए या 3 किग्रा केंचुए डाल दे। अब इस ढेर को जूट के बोरों से ढक दें तथा इस पर नियमित रूप से पानी का छिड़काव करते रहें ताकि टैंक में 30% नमी बनी रहे तथा कचरा नम रहे जिसे केंचुए आसानी से खा सकें। नमी की जांच के लिए गोबर को मुट्ठी में लेकर दबाने पर पानी बूंद-बूंद या धारदार रूप से न गिरे केवल अंगुलियों के बीच ही पानी फँसा रहे। ठंड के मौसम में दिन में एक बार तथा गर्मी के मौसम में दिन में दो बार पानी का छिड़काव करते रहें।

• वायु का संचार ठीक से होने के लिए समय-समय पर कचरे एवं गोबर को एक दिनबीच कर पंजे से धीरे-धीरे पलटते रहें।

• टैंक में सदा अंधेरा बना रहना चाहिए क्योंकि अंधेरे में केंचुए ज्यादा क्रियाशील रहते हैं।

• ऊपरी सतह पर 35-40 दिनों बाद चाय की पत्ती के समान केंचुओं द्वारा विसर्जित कास्टिंग दिखाई देने लगती है। इस तरह और 35-40 दिनों, यानी 70-80 दिनों के उपरांत सारा कचरा कॉस्टिंग (कंपोस्ट) के रूप में परिवर्तित हो जाएगा।

अब 3-4 दिनों तक पानी का छिड़काव बंद कर दें तथा तैयार वर्मी कंपोस्ट को टैंक से बाहर निकालकर छायादार स्थान पर पॉलिथीन शीट पर ढेर लगा दें। 2-3 घंटे के उपरांत केंचुए पॉलिथीन के फर्श पर ढेर के नीचे चले जायेंगे। इस स्थिति में वर्मी कंपोस्ट को अलग करके नीचे इकट्ठे हुए केंचुओं की आगे वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के काम में लाया जा सकता है। तथा अलग किये हुए कंपोस्ट को 4-5 घंटे तक छाया में ही हवा लगाने के उपरांत 2 मिली मीटर की जाली या चलना से चलाकर तैयार वर्मी कंपोस्ट को सुरक्षित रख सकते हैं या प्रयोग में ला सकते हैं।

सतह विधि –

सर्वप्रथम उपयुक्त स्थान पर छप्पर बना लेने के बाद फर्श को समतल कर अपने संसाधन के अनुसार बेड बनाना चाहिए। यदि 10 फीट लंबा, 3 फीट चौड़ा बेड बनाना है तो इसके लिए फर्श पर इस आकार को ध्यान में रखकर 2 इंच मोटी बालू की सतह बिछा देना चाहिए यानी 10 फीट लंबा एवं 3 फीट चौड़ा बालू को 2 इंच मोटा बिछाने के उपरांत इसके ऊपर 4 इंच ऊंचा (मोटा) नमीयुक्त भूसा या जानवर के नाद का अवशेष बिछा दे। तत्पश्चात करीब 20 दिन का पुराना जमा किया हुआ गोबर एवं कचरे के अवशेष को 10 फीट लंबा एवं 3 फीट चौड़ा बेड पर 1 फीट ऊंचा कर फैला दिया जाता है। फिर 2 किलोग्राम (2000 केंचुए) को दो-तीन स्थान पर रख कर जूट के बोरों से ढक दें तथा इस पर नियमित रूप से पानी का छिड़काव करते रहें। अब समय-समय पर गोबर एवं कचरे को कम से कम 1 दिन के अंतराल पर पंजे से धीरे-धीरे चलाना चाहिए। उक्त क्रियाएं विधिवत कर लेने पर 35-40 दिनों पर ऊपरी सतह पर चाय की पत्तों के समान केंचुओं द्वारा विसर्जित कास्टिंग दिखाई देने लगते हैं। इस तरह और 35 से 40 दिनों के बाद (कुल 70-80) सारा कचरा कास्टिंग के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अब 3-4 दिनों तक पानी का छिड़काव बंद कर दें तथा तैयार वर्मी कंपोस्ट को छायादार स्थान पर पॉलिथीन शीट पर ढेर लगा दें। 2-3 घंटे के उपरांत केंचुए पॉलिथीन के फर्श पर चले जाते हैं। इस स्थिति में वर्मी कंपोस्ट को अलग कर नीचे इकट्ठे हुए केेचुए को पुनः वर्मी कंपोस्ट तैयार करने में उपयोग किया जा सकता है। कंपोस्ट को 2 मिली मीटर की जाली से भी चला कर अलग किया जा सकता है। तैयार वर्मी कंपोस्ट को सुरक्षित रख सकते हैं या अपने प्रयोग में ला सकते हैं।

सावधानियां – • प्रशिक्षण लेकर ही वर्मी कंपोस्ट का उत्पादन आरंभ करें।

• गोबर एवं कूड़ा कचरा कम से कम 20 दिन पुराना अवश्य होना चाहिए, क्योंकि ताजे गोबर में केंचुए मर जाते हैं।

• केंचुआ को सूर्य की रोशनी, ज्यादा पानी, अत्यधिक गर्मी, चींटी, मेंढक, सांप, पक्षी से बचाव का उपाय अवश्य करें।

• नमी कायम रखने के लिए पानी का नियमित छिड़काव अवश्य करें।

• गोबर जमा करने के समय उस पर पानी का नियमित छिड़काव कर चलाते रहें, जिससे उसमें दिया हुआ वनस्पति अवशेष ठीक से सड़ जाए। वर्मी कंपोस्ट तैयार करने से लेकर पैकिंग तक का सारा कार्य छायादार स्थान पर ही करें।

• बोरी में रखते समय कुछ स्थान खाली छोड़ दें जिससे उसमें हवा रह सकें, तथा छायादार स्थान पर ही भंडारित करें।

प्रयोग की मात्रा एवं विधि- वर्मी कंपोस्ट नामक जैविक खाद का प्रयोग विभिन्न फसलों में अलग-अलग मात्रा में किया जाता है। खेत की तैयारी के समय 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक का प्रयोग किया जा सकता है। पौधा लगाने के 15 दिन बाद 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। खाद्यान्न फसलों में 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक डाला जाता है। फलदार पेड़ों में जरूरत के अनुसार 1 से 10 किग्रा प्रति पेड़ वर्मी कम्पोस्ट का व्यवहार किया जा सकता है। किचन, गार्डेन तथा गमलों में 100 ग्राम प्रति गमला खाद डाला जाता है। सब्जी की फसलों में 100-120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर वर्मी कंपोस्ट का व्यवहार करने से लाभ होता है।

जीवाणु खाद –

वर्तमान समय में रासायनिक खादों के असंतुलित प्रयोग तथा जीवांश खादों की कमी से हमारी कृषि हेतु भूमि तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। मिट्टी में जीवांश की मात्रा घटने से उसकी उपजाऊ शक्ति घटती जा रही हैं। जलाशय तथा जमीन के नीचे का पानी प्रदूषित होता जा रहा है। साथ ही साथ मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में कमी होती जा रही है। इससे पौधों की वृद्धि तथा उपज पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में जीवाणु खाद के उपयोग से मिट्टी की दशा में सुधार एवं पौधे के विकास के लिए लाभकारी जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि की जा सकती है।

जीवाणु खाद लाभकारी जीवाणुओं के वह उत्पाद हैं जो मिट्टी व हवा से पौधे के लिए मुख्य तत्वों का दोहन कर पौधे को उपलब्ध कराते हैं। जीवाणु खाद वास्तव में जीवाणु कल्चर हैं जो भूमि की दशा में सुधार के साथ-साथ कृषि उत्पाद की गुणवत्ता को बढ़ाने में योगदान देते हैं वायुमंडल में 82000 टन नत्रजन प्रति हैक्टेयर आच्छादित है, जो कुल वर्तमान वायुमंडल का 79% है, जिसे कोई पौधा सीधे ग्रहण नहीं कर पाता है। किंतु इस भंडार का उपयोग मिट्टी के सहजीवी जीवाणुओं की सहायता से कुछ सीमा तक किया जा सकता है। मिट्टी में इन जीवाणुओं की आपूर्ति जीवाणु खाद के प्रयोग से की जाती है। इसके अलावा मिट्टी में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाकर पौधों को उपलब्ध कराने का कार्य भी जीवाणु खाद के प्रयोग से किया जा सकता है। विभिन्न जीवाणु खाद की जानकारी दी जा रही है-

राइजोबियम कल्चर

राइजोबियम कल्चर एक नत्रजन जीवाणु खाद है। इसका प्रयोग सभी प्रकार की दलहनी फसलों में बीजोपचार विधि द्वारा करते हैं सभी दलहनी फसलों की जड़ों में छोटी-छोटी गाँँठे होती हैं, इनमें राइजोबियम जीवाणु रहते हैं। ये जीवणु वायुमंडलीय नत्रजन को भूमि में स्थिर कर पौधों को भोजन के रूप में उपलब्ध कराते हैं। विभिन्न दलहनी फसलों के लिए अलग-अलग राइजोबियम कल्चर का प्रयोग किया जाता है। राइजोबियम कल्चर के प्रयोग से रासायनिक नत्रजन उर्वरक की बचत होती है तथा फसल की उपज में 15-20% वृद्धि होती है।

दलहनी फसल के बाद अन्य दूसरी फसलों को भी नत्रजन प्राप्त होता है।

एजोटोबैक्टर कल्चर:-

इस कल्चर का प्रयोग खाद्यान्न वाली फसलों जैसे – धान, गेहूं, जौं, ज्वार, मक्का, सब्जी फसलें जैसे- टमाटर, बैंगन, आलू तथा नकदी फसलों जैसे गन्ना, कपास, आदि के लिए करते हैं। एजोटोबैक्टर कल्चर के प्रयोग से 10-20 किलोग्राम नत्रजन प्रति हैक्टेयर रासायनिक खाद की बचत की जा सकती है। इसके प्रयोग से बीजों का अंकुरण अच्छा होता है और जड़ों का विकास होता है। जिससे अधिक मात्रा में पौधों द्वारा पोषक तत्व का उपयोग किया जाता है। एजोटोबैक्टर पौधों की जड़ों में फफूंदी जनित बीमारियों से बचाने में भी सहायक होता है। इस कल्चर के प्रयोग से अनाज वाली फसलों में 10 से 20% एवं सब्जी में 10 से 15% तक पैदावार में वृद्धि पाई गई है।

फास्फोबैक्टीरिया

इस कल्चर के प्रयोग से मिट्टी में फास्फोरस की उपलब्धता में वृद्धि होती है इस कल्चर के जीवाणु मिट्टी में पाए जाने वाले अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील रूप में परिवर्तन कर देते हैं। जिससे पौधों की जड़े इस घुलनशील फास्फोरस का आसानी से शोषण कर लेती हैं। मसूर, चना और आलू में इस कल्चर के प्रयोग से उपज में 10 से 15% तक वृद्धि हुई है।

जीवाणु खाद प्रयोग से लाभ

ये सस्ते होते हैं, जिससे कम खर्च में उपज में वृद्धि होती हैं। यह उपज में कम से कम 10% से 15% की वृद्धि करते हैं। यह रासायनिक खादों खासकर नत्रजन और फास्फोरस की जरूरत का 20 से 25% तक पूरा कर सकते हैं।

• इनके प्रयोग से फसल में कल्लों में वृद्धि, अधिक अंकुरण तथा जड़ों का विकास होता है। इनसे भूमि की जल संग्रहण क्षमता में वृद्धि होने के साथ-साथ सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधियों में वृद्धि होती है।

• ये फसलों के उत्पाद में स्टार्च, तेल तथा शक्कर की मात्रा में वृद्धि करते हैं जिससे गुणवत्ता में वृद्धि होती है।

जीवाणु खाद के प्रयोग से मृदाजनित रोगों पर नियंत्रण, सूक्ष्म लाभकारी जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि तथा पर्यावरण मित्रवत होता है। ये रासायनिक उर्वरकों की आवश्यक मात्रा में कमी लाते हैं जिससे आर्थिक लाभ प्राप्त होता है।।

• कम्पोस्ट गोबर की खाद, उर्वरक तथा जीवाणु खाद का सम्मिलित प्रयोग प्रत्येक फसल में लाभकारी होता है।

जीवाणु खाद के प्रयोग में सावधानियां-

जीवाणु खाद को छाया में सूखे स्थान पर रखें। इसे मिट्टी के घड़े में भंडारित करना चाहिए।

• विभिन्न फसलों के लिए अनुशंसित जीवाणु खाद का ही इस्तेमाल करें।

• रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के संपर्क में नहीं रखें।

• उपचारित बीजों की बुवाई सांय काल उचित होती है।

• रासायनिक उपचार की स्थिति में पहले कवकनाशी फिर कीटनाशी तथा अंत में जीवाणु खाद का प्रयोग करना चाहिए। ऐसी दशा में जीवाणु खाद की दुगुनी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।

• पैकेट को उपचार के समय खोलें तथा प्रयोग समाप्ति तिथि के पूर्व उपयोग करें।

जीवाणु खाद प्रयोग विधि

बीज उपचार – आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ की मात्रा लेकर घोल बनाकर हल्का गर्म करके ठंडा होने के बाद जीवाणु खाद को घोल में डालकर अच्छी तरह मिला लें। इस घोल को 10 किलोग्राम बीज में समान रुप से मिलाकर छाया में सुखाने के बाद बुवाई शीघ्र कर दें।

जड़ उपचार –  धान तथा सब्जी वाली फसलें जिनके पौधों की रोपाई की जाती है उन पौधों की जड़ों को जीवाणु खाद द्वारा उपचारित किया जाता है। एक किलोग्राम जीवाणु खाद का 5 6 लीटर पानी में घोल बनाकर 50-10 पौध का बंडल बनाकर जीवाणु खाद के घोल में 10 मिनट तक डुबो देते हैं। इसके बाद तुरंत रुपाई कर देते हैं।

कंद उपचार – एक किलोग्राम जीवाणु खाद को 20-30 लीटर पानी में 10 क्विंटल कंद को 10 मिनट तक उपचारित करने के बाद बुवाई कर देते हैं।


मृदा उपचार – 5-10 किलोग्राम जीवाणु कल्चर (एजोटोबैक्टर एवं पी.एच.बी) का आधा-आधा भाग 100 किलोग्राम गोबर की खाद अथवा कंपोस्ट में मिलाकर मिश्रण तैयार करके रात भर छोड़ दें। इसके बाद एक हेक्टेयर भूमि में अंतिम जुताई से पूर्व भुरकाव कर खेत में फैलाकर मिट्टी से मिला दें।

 


3 Comments

रोहित कुमार · July 21, 2018 at 8:58 pm

बहुत सुंदर और एक दूसरे को जानते ही होंगे और एक दूसरे को बधाई देने की घोषणा कर सकते है

Kailash Yadu · July 22, 2018 at 4:07 pm

jaivik kheti se hame bahut labha hai

Abhinanyu Golhar · August 15, 2018 at 12:43 am

कपास उत्पादन की जानकारी

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