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“कुसुम (SAFFLOWER)”
◆ महत्व- किसान भाइयों कुसुम की फसल मुख्यत: तेल के लिए उगाई जाती है। कपड़े व खाने के रंगों में कुसुम का प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में कृत्रिम रंगों का स्थान, कुसुम से तैयार रंग के द्वारा ले लिया गया है। इसके दानों में 32% तक तेल पाया जाता है। तेल खाने, पकाने व प्रकाश के लिए जलाने के काम आता है। यह साबुन, पेण्ट, वार्निश, लिनोलियम तथा इनसे संबंधित पदार्थों को तैयार करने के काम में भी लिया जाता है। कुसुम के तेल का प्रयोग विभिन्न दवाइयों के रूप में भी किया जाता है। इसे उत्तेजक दवाई व दस्तावर दवाई के रूप में काम में लेते हैं। हरे पौधों को पशुओं के लिए चारे के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इससे साइलेज भी तैयार की जाती है। इसके हरे भागों से सब्जी भी तैयार की जाती है। इसकी खली पशुओं को खिलाने या खाद के रूप में खेती में प्रयोग की जा सकती है।
◆ पोषक तत्व-
◆ वितरण एवं क्षेत्रफल_ किसान भाइयों मिस्र से लेकर भारतवर्ष के बीच सभी क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है। भारतवर्ष संसार का कुसुम उगाने वाला प्रमुख राष्ट्र है। संसार के कुल क्षेत्रफल का 75% भारतवर्ष में ही है।भारतवर्ष में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ कुसुम उगाने वाले प्रमुख प्रांत हैं।
◆ जलवायु _किसान भाइयों भारतवर्ष में कुसुम रबी की ऋतु में उगाई जाती है। सिंचित व असिंचित दोनों ही क्षेत्रों के लिए यह एक उपयुक्त फसल है। इसकी जड़ें काफी गहराई से मृदा नमी का शोषण कर सकती हैं। 60-100 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। फसल सूखे को सहन कर सकती है।
◆ भूमि_ किसान भाइयों कुसुम की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। कम उर्वर रेतीली भूमियों से लेकर महाराष्ट्र, तमिलनाडु व कर्नाटक की काली मृदाओं तक इसकी खेती की जाती है। उत्तर प्रदेश की हल्की एल्यूवियल मृदाएँ इसके लिए उत्तम हैं। अम्लीय भूमियाँ पूर्णतया अनुपयुक्त हैं। लवणीय मृदा में पैदा हो जाती है।
◆ कुसुम की उन्नत जातियां _
(i) टा. 65 (के.65)_ फसल अवधि 175-190 दिन, दानों में तेल 30-35% उपज शुष्क क्षेत्रों में अच्छे प्रबंध में 12-14 कुंतल/हेक्टेयर, आल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट से प्रभावित होती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बुंदेलखंड में इस किस्म को बोने की सिफारिश की गई है।
(ii) HUS-305 (मालवीय कुसुम 305)_ किसान भाइयों यह किस्म 1986 में विकसित की गयी है। फसल अवधि 160-170 दिन है। दानों में तेल 30-35% तक पाया जाता है। आल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट की सहनशील है। इससे 12-13 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती हो जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए इसकी संस्तुति की गयी है।
(iii) 6503 _ पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं पश्चिमी बिहार के लिये उपयुक्त है। इससे 15-20 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है। फसल अवधि 160-170 दिन है।
◆ भूमि की तैयारी_ किसान भाइयों कुसुम की फसल शुद्ध एवं मिश्रित फसल (गेहूं, जौं, चना व रबी ज्वार के साथ) के रूप में उगाई जाती है। शुद्ध फसल के लिए एक जुताई गहरी व 2-3 जुताई देशी हल या हीरों, कल्टीवेटर से करते हैं। जुताई की संख्या भूमि की किस्म के अनुसार कम या अधिक कर सकते हैं। जुताई की संख्या इतनी होनी चाहिए जिससे कि बीजों का अंकुरण सफलतापूर्वक हो सके। मिश्रित फसल के लिए मुख्य फसल के लिए की गई खेत की तैयारी ही कुसुम के लिए पर्याप्त होती है।
◆ बीज की मात्रा_
(1) शुद्ध फसल – सिंचित 10 से 15 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
(2) शुद्ध फसल – शुष्क क्षेत्र 15 से 20 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
(3) मिश्रित फसल – 4 से 5 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
◆बोने का समय – किसान भाइयों शुद्ध फसल की बुवाई अक्टूबर के प्रारंभ में व मिश्रित फसल की बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक करते हैं।
◆ बोने की विधि_ शुद्ध फसल पंक्तियों में हल के द्वारा बोई जाती है। बुवाई के लिए सीडड्रिल का प्रयोग भी किया जा सकता है। मिश्रित फसल में बुवाई ऐच्छिक अन्तर पर हल से कूँड़ तैयार करके की जाती है।
◆ खाद_ असिंचित क्षेत्र में 30-40 किग्रा नत्रजन, 30 किग्रा फॉस्फोरस 20 किग्रा पोटाश देना लाभदायक है। सिंचित क्षेत्र में 40-60 किग्रा नत्रजन 40 किग्रा फॉस्फोरस 30 किग्रा पोटाश देना लाभदायक है। फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही खेत में दे देते हैं। असिंचित क्षेत्रों में नत्रजन की पूरी मात्रा बुवाई के समय व सिंचित क्षेत्रों में आधी नत्रजन बुवाई पर व आधी नत्रजन पहली सिंचाई पर खेतों में दे देते हैं। खाद की मात्रा सदैव मृदा परीक्षण कराकर ही निर्धारित करनी चाहिए। नत्रजन की मात्रा अमोनियम सल्फेट, फॉस्फोरस सिंगल सुपरफॉस्फेट व पोटाश पोटेशियम सल्फेट से देना चाहिए। इन उर्वरकों से गंधक भी फसल को मिल जाती है, जिससे कि बीजों में तेल की मात्रा व गुणों की वृद्धि होती है। बुवाई के समय कुसुम के बीजों का एजोटोबैक्टर व एजोस्पाइरिलम जीवाणु द्वारा उपचार से आधी नत्रजन की आवश्यकता पूर्ति की जा सकती है।
◆ सिंचाई _ यद्दपि कुसुम की खेती वर्षा के आधार पर की जाती है, परंतु दो सिंचाई, पहली बोने के 30 दिन बाद व दूसरी फूल आते समय देने पर, असिंचित खेतों की तुलना में, काफी उपज प्राप्त होती है। फसल में आवश्यकता अनुसार जल निकास अत्यंत आवश्यक है। थोड़े समय तथा तक खेत में पानी ठहरने से फसल नष्ट हो सकती हैं।
◆ निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण_ प्रारंभ में फसल को खरपतवार से बचाने के लिए बोने के 30 दिन बाद एक निराई करना आवश्यक है।
◆ कटाई एवं मड़ाई _फसल की किस्म के अनुसार 120-180 दिन बाद फसल पक कर तैयार हो जाती है। पकने पर पौधों में पत्तियां व कैप्सूल (बौनडी) पीला पड़ जाता है व सूखने लगता है। दाने सफेद चमकीले दिखाई देने लगते हैं। इस अवस्था में के बाद में अगर फसल खेत में खड़ी रह जाये तो फसल खेत में ही चटख सकते हैं तथा इससे पहले कटाई करने पर उपज कम प्राप्त होती है तथा तेल के गुणों में भी अन्तर आता है।
• कटाई हंसिया की सहायता से सुबह के समय करनी चाहिए। इससे पौधे टूटने से बचते हैं तथा काँटे भी इस समय में अपना प्रभाव अधिक नहीं दिखाते। मड़ाई बैलों की दाँय चलाकर या गेहूं थ्रेशर द्वारा की जा सकती है।
◆ उपज _किसान भाइयों असिंचित क्षेत्रों में शुद्ध फसल से 6-8 कुंतल प्रति हेक्टेयर व सिंचित क्षेत्रों में 15-20 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है। मिश्रित फसल से 2-6 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है।
◆ बीमारियां एवं उनकी रोकथाम
(i) उकठा _ यह बीमारी स्क्लेरोटिनिया स्क्लेरोटिनम नामक फफूंदी से लगती है। सिंचित अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल निकास उचित नहीं होता, इसका प्रभाव अधिक पाया जाता है। प्रभावित पौधे मृदा आधार या मृदा में नीचे सफेद मोटी रचना प्रदर्शित करते हैं।
• रोगरोधी किस्में HUS-305 आदि उगायें तथा खेतों को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए। रोगग्रसित पौधे उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
(ii) गेरुई _ यह पक्सीनिया कार्थेमी नामक फफूंद से लगता है। पतियों पर धब्बे दिखाई पड़ते हैं। रोगरोधी किस्मों को उगाना चाहिए। बीज को सदैव एग्रोसन जी. एन. या कैप्टान या थीरम से उपचारित करके बोना चाहिए। रोग का फसल पर प्रभाव होते ही डाइथेन एम-45 या डाइथेन जैड 78 का 0.25% घोल का छिड़काव 8-10 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। खेत की सफाई रखना भी इस रोग के फैलाव को रोकता है।
(iii) आल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट_ फसल में इस रोग से कभी-कभी 25-42% तक कमी आ जाती है। इस बीमारी से फसल को बचाने के लिए डाइथेन एम 45 की 2 किग्रा मात्रा 1,000 लीटर पानी में घोलकर 10-15 दिन के अन्तर पर छिड़काव करें। सहनशील जाति HUS-305 उगायेे।
◆ कीट एवं उनकी रोकथाम-
एफिड या माहू_ यह कीट पत्तियों का रस चूसकर फसल को हानि पहुंचाता है। नम मौसम में इसका प्रभाव अधिक बढ़ता है। कभी-कभी इस कीट से 13-49% तक उपज में कमी आती है। इसकी रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स 0.15% का घोल 2-3 बार 6-10 के अन्तर पर छिड़कना चाहिए।
किसान भाइयों इसके अतिरिक्त पत्ती की सूँडी, कुसुम की मक्खी व चने की सूँडी नामक कीट भी कुसुम की फसल को हानि पहुंचाते हैं इन सभी प्रकार के कीटों व सूंडियों की रोकथाम के लिए पपैराथियोन या थायोडान का 0.04% का घोल छिड़कना लाभप्रद रहता है।
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Joginder singh · March 28, 2018 at 3:38 pm
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