मौसम

किसी स्थान का मौसम असल में उस स्थान के तापमान, बादलों की दशा, हवा में नमी आदि से सम्बंधित है। मौसम का सम्बन्ध हमारे वातावरण में रोजाना होने वाले बदलावों से है। ये मौसम सब जगहों पर एक जैसा नहीं रहता। किसी एक जगह पर मौसम गर्म और तेज़ धूप वाला हो सकता है वहीं उसी समय किस दूसरी जगह ठंडी हवाओं और बर्फबारी वाला मौसम हो सकता है। वायुमंडल की दशाएं मौसम को निर्धारित करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं।

मौसम तथा कृषि क्रियाएं

मौसम का कृषि क्रियाओं से बहुत गहरा सम्बन्ध है। कृषि में खेत की जुताई, बुवाई, निराई-गुड़ाई फसल की वृद्धि फसल का पकना फसल की कटाई तथा भंडारण तक की सभी क्रियाएं मौसम की अनुकूलता पर निर्भर करती हैं तथा फसल की सफलता और असफलता मौसम के ऊपर निर्भर करती है।

किसी भी फसल की उपज प्राप्त करने के लिए समय पर फसल की बुवाई होनी चाहिए फिर अंकुरण के लिए उचित धूप वायु तथा नमी की आवश्यकता होती है। इसके बाद पौधों की वृद्धि के लिए धूप वर्षा और वायु की आवश्यकता पड़ती है। पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के लिए धूप की आवश्यकता है। धूप में पेड़ पौधे अपना भोजन बनाते हैं तथा धूप से भूमि के ताप में वृद्धि होती है जिससे आवश्यक तत्व जल में घुल जाते हैं जिन्हें पौधे अपनी जड़ों के द्वारा ग्रहण करते हैं। धूप में फसलों पर कीड़ों का प्रभाव भी कम होता है। इसके अतिरिक्त पौधों की वृद्धि हेतु समय-समय पर सिंचाई की आवश्यकता होती है।यदि इस समय पर वर्षा हो जाती है तो सिंचाई के साथ साथ वायु में नमी की मात्रा भी बढ़ जाती है जिससे पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। इसी प्रकार फसल की पकाई, कटाई तथा भंडारण के समय भी अनुकूल मौसम का होना अनिवार्य है। यही कारण है कि जिस वर्ष मौसम फसलों के अनुकूल होता है, फसलों की पैदावार अच्छी होती है तथा जिस वर्ष मौसम प्रतिकूल होता है उस वर्ष में फसल की पैदावार कम होती है।

फसलों पर मौसम का अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव

भारतवर्ष की अधिकांश भूमि पर असिंचित खेती होती है जहां पर फसल का पैदा होना या ना होना केवल प्रकृति पर निर्भर करता है। इसके अतिरिक्त उन स्थानों पर भी जहां सिंचाई के साधन है, यदि मौसम फसलों के अनुकूल है तो अच्छी उपज होती है इसके विपरीत मौसम के प्रतिकूल दशाएं होने पर उपज अच्छी नहीं होती है। हमारे देश में मुख्यतः 3 ऋतुएँ ग्रीष्म, वर्षा तथा शरद की होती हैं। इन ऋतुओं का मौसम भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। इसी आधार पर भारतवर्ष में मुख्यतः फसलों को भी जलवायु के आधार पर तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं-

खरीफ की फसलें- इन फसलों के अंतर्गत मक्का, ज्वार, बाजरा, महुआ, उर्द, लोबिया, अरहर, ग्वार, तिल, मूंगफली, कपास, सनई तथा पटसन आदि की खेती होती है। इन फसलों की बुवाई के लिए वायुमंडल का ताप ऊंचा होना चाहिए तथा वृद्धि के लिए अच्छी नमी तथा अधिक समय तक धूप की आवश्यकता होती है। अर्थात दिन बड़े होने चाहिए तथा फसलों की पकाई के समय कम समय तक धूप की आवश्यकता पड़ती है अर्थात दिन पहले से छोटे होने चाहिए। यही कारण है कि इस श्रेणी की फसलों का समय जून से अक्टूबर तक होता है।

रबी की फसलें- इन फसलों के अंतर्गत गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसों, रिजका, गोभी, गाजर, मूली, आदि की खेती की जाती है। इन फसलों की बुवाई के समय वायुमंडल में अच्छी नमी कम धूप तथा हल्की ठंड की आवश्यकता पड़ती है। पौधों की वृद्धि के लिए ठंडा वातावरण तथा कम समय के लिए प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है तथा फसलों की पकाई के लिए गर्म दिन तथा अधिक समय के लिए धूप की आवश्यकता पड़ती है। इन फसलों की खेती का उपयुक्त समय नवंबर से अप्रैल तक होता है।

जायद की फसलें- इन फसलों के अंतर्गत तरबूज, खरबूजा, ककड़ी, खीरा, लौकी, तुरई, मूंग, लोबिया, सूरजमुखी, आदि की खेती की जाती है। इन फसलों की बुवाई के लिए हल्की ठंड और कम समय के लिए धूप की आवश्यकता होती है। वृद्धि एवं पकाई के लिए तेज गर्मी की आवश्यकता होती है। इन फसलों के लिए फरवरी से जून तक का मौसम उपयुक्त माना जाता है। वैसे तो आज का युग वैज्ञानिक युग है जिसमें कृत्रिम वातावरण उत्पन्न करके गैर मौसम की फसलें उगाई जा रही है परंतु इस प्रकार से उत्पन्न की गई फसलों की उत्पादकता उस स्तर की नहीं होती हैं जैसे कि प्राकृतिक अनुकूल परिस्थितियों में होती है।

फसलों पर प्रतिकूल मौसम का प्रभाव-

प्रतिकूल मौसम फसलों को अंकुरण से लेकर उन के भंडारण तक की क्रियाओं को प्रभावित करता है जिससे उत्पादकता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इस शीर्षक के अंतर्गत हम मौसम की उन दशाओं का वर्णन करेंगे, जो फसलों पर बुरा प्रभाव डालती हैं।

त्रुटियुक्त वर्षा – वर्षा की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं-

अनावृष्टि – वर्षा का बहुत कम होना या बिल्कुल ना होना अनावृष्टि कहलाता है। ऐसी अवस्था में खरीफ की फसलें बिल्कुल बर्बाद हो जाती हैं। केवल ऐसे क्षेत्रों को छोड़कर जहां सिंचाई की सुविधाएं हैं, फसलें सूख जाती हैं और अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा रबी की फसलों की बुवाई भी अधिकतर क्षेत्रों में नहीं हो पाती।

अतिवृष्टि – वर्षा का आवश्यकता से अधिक होना अतिवृष्टि कहलाता है वर्षा की इस अवस्था से नदियों में बाढ़ आ जाती है जिससे फसलें बह जाती हैं या पानी में डूबकर सड़ जाती हैं। दूसरे, जो क्षेत्र गहरे होते हैं तथा जल निकासी की व्यवस्था नहीं होती है वहां पर अधिक दिनों तक पानी भरा रहता है जिसके कारण पौधों की जड़े गल जाती है। इससे खरीफ की फसलों में भारी हानि होती है तथा रबी की फसल पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि जमीन की समय पर जुताई नहीं हो पाती है जिससे रबी की फसल की बुवाई देर से होती है।

असमय वृष्टि – जब वर्षा ठीक समय पर ना होकर ऐसे समय पर होती है जब वर्षा की आवश्यकता न हो तो ऐसी वर्षा को असमय वृष्टि कहते हैं। ऐसी वर्षा फसलों की बुवाई, अंकुरण पौधों की वृद्धि तथा पकाई और भंडारण जैसी सभी क्रियाओं पर बुरा प्रभाव डालती है। उपरोक्त क्रियाओं में से कोई सी क्रिया भी नियमानुसार पूर्ण नहीं होती है जिससे उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जैसे-

(i) बुवाई से पूर्व वर्षा से दोबारा जमीन तैयार करने में समय लग जाता है जिससे फसल देर से बोई जाती है।

(ii) बुवाई के तुरंत बाद वर्षा होने से बीज के जमीन में सड़ने का भय रहता है तथा जमीन की ऊपरी सतह सूखकर कठोर हो जाती है जिससे अंकुरण नहीं होता है।

(iii) कई बार असमय वर्षा से खेतों की निराई-गुड़ाई ठीक प्रकार से नहीं हो पाती है जिससे खरपतवार अधिक उग जाती है।

(iv) फसल की पकाई के समय की वर्षा कई बार फसल को नष्ट कर देती है तथा उसकी कटाई पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

(v) असमय वर्षा रबी तथा खरीफ की फसलों को खलियानों से उठाने में भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है। कई बार तो उपज का काफी हिस्सा नष्ट हो जाता है।

पाले का प्रभाव – आमतौर पर पाला दिसंबर तथा जनवरी के महीनों में पड़ता है। उस समय रबी की फसलें खेतों में होती है। पाला पड़ने पर पेड़ पौधों की कोशिका का जल बर्फ में बदल जाता है जिससे पेड़ पौधों की कोशिकाएं फट जाती है (क्योंकि पानी जब बर्फ में परिवर्तित होता है तो उसके आयतन में 1/5 भाग की वृद्धि हो जाती है।) जिसके कारण पेड़-पौधे सूख जाते हैं।

ओलों का प्रभाव – मार्च-अप्रैल के महीनों में होने वाली वर्षा में अधिकतर ओले पड़ जाते हैं क्योंकि इस मौसम में जब वायुमंडल का ताप 0℃ हो जाता है तो वायुमंडल का जल बर्फ में परिवर्तित होकर ओलों के रूप में बरसने लगता है जिससे खड़ी फसलें नष्ट हो जाती है तथा जो फसलें पकी होती है उनके दाने खेतों में ही झड़ जाते हैं।

गर्म और तेज हवाओं का प्रभाव – मार्च-अप्रैल के माह में जब रबी की फसलों में दूध की स्थिति होती है तब दाने पकने से पूर्व गर्म तेज हवाओं के चलने से दानों का दूध सूख जाता है जिससे दानों का समुचित विकास नहीं हो पाता है तथा उपज कम हो जाती है।

फसलों पर प्रतिकूल मौसम के कुप्रभाव को दूर करने के उपाय –

फसलों को प्रतिकूल मौसम के कुप्रभाव से पूर्ण रूप से तो नहीं बचाया जा सकता है परंतु फिर भी बचाव के उपाय किए जाए तो फसलों को होने वाली हानि को काफी कम किया जा सकता है। फसलों को प्रतिकूल मौसम के कुप्रभाव से बचने के कुछ उपाय इस प्रकार हैं-

त्रुटियुक्त वर्षा के कुप्रभाव से फसलों की सुरक्षा-

त्रुटियुक्त वर्षा के अन्तर्गत वर्षा की तीन अवस्थायें – (i) अनावृष्टि, (ii) अतिवृष्टि, (iii) असमय वृष्टि आती हैं। इन तीनों अवस्थाओं से फसलों का बचाव निम्नलिखित उपायों से कर सकते हैं-

 अनावृष्टि से फसलों की सुरक्षा –

अनावृष्टि की स्थिति में फसलों की सुरक्षा हेतु निम्नलिखित उपाय करने चाहिए –

01. जिन क्षेत्रों में अनावृष्टि (कम वर्षा) होती है वहां ऐसी फसलों की खेती करनी चाहिए जिनमें पानी की कम आवश्यकता होती है; जैसे – ज्वार, बाजरा, चना, सरसों, मूंगफली, आदि।
02. ऐसे क्षेत्रों में कम पानी चाहने वाली तथा कम समय में पकने वाली फसलें उगानी चाहिए और शुष्क खेती की विधि प्रयोग में लानी चाहिए। शुष्क खेती विधि के द्वारा ऐसे यंत्र का प्रयोग किया जाता है जिससे भूमि में पानी की अधिक से अधिक मात्रा बनी रहती है।
03. ऐसे क्षेत्रों में गर्मियों में जुताई अधिक की जाती है जिससे थोड़ी वर्षा होने पर भी जमीन में अधिक से अधिक नमी बनी रहती है।
04. ऐसे क्षेत्रों में खरीफ की फसल के बाद नमी को संरक्षित रखने के लिए जुताई के बाद पाटा अवश्य लगा देना चाहिए।
05. ऐसे क्षेत्रों में खरपतवार को नियंत्रित रखना चाहिए तथा मिश्रित फसलें उगानी चाहिए।

अतिवृष्टि से फसलों की सुरक्षा –

अतिवृष्टि से फसलों की सुरक्षा निम्नलिखित उपायों के द्वारा की जा सकती है-

01. ऐसे क्षेत्रों में जहाँ अतिवृष्टि (अधिक वर्षा) होती है, खेतों से जलनिकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे अधिक समय तक खेतों में पानी न भरा रहे।
02. ऐसे क्षेत्रों में ऐसी फसलें उगानी चाहिए जिनमे जल की अधिक आवश्यकता होती है। जैसे – धान, गन्ना, आदि।
03. ऐसे क्षेत्रों में ऐसी फसलें (अगेती फसलें) उगानी चाहिए जो जल्दी पक जाती हैं तथा अतिवृष्टि से पूर्व ही उन्हें काटा जा सके।
04. जो खेत गहरे हों उनके जल पम्पिंग सेट की सहायता से निकाल देना चाहिए, जिससे पौधों की जड़े न गल पायें।
05. ऐसे क्षेत्रों में खरीफ की फसल काटने के बाद खेतों की उथली जुताई करके उन्हें खुला छोड़ देना चाहिए जिससे खेत जल्दी सूख सके।

असमय वृष्टि से फसलों की सुरक्षा –

असमय वृष्टि से फसलों की सुरक्षा के उपाय निम्नलिखित हैं –

01. यदि फसल बोने से पूर्व पलेवा के बाद वर्षा हो जाये तो खेत को कल्टीवेटर से जुताई करके छोड़ देना चाहिए जिससे खेत शीघ्र ही जुताई के लिए सूख जाये।
02. यदि खेत की बुवाई के एक-दो दिन बाद ही वर्षा हो गई है और खेत में पपड़ी जम गई है तो ऐसी स्थिति में खूंटीदार पटेला से पपड़ी तोड़ देनी चाहिए, जिससे पौधे अंकुरित होकर बाहर निकल जायें।
03. फसल पकने के पूर्व यदि वर्षा हो गई है तो खेत के जल की निकासी का प्रबन्ध करना चाहिए।
04. यदि फसल काटने के बाद वर्षा हो जाये तो फसल को ऊँचे स्थान पर इस प्रकार रखना चाहिए जिससे कि बालियाँ ऊपर की ओर रहें।

पाले से फसल की सुरक्षा –

पाले से फसलों को बचाने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए-

फसलों को पाले की हानि से बचाने के लिए खेतों में पानी लगा देना चाहिए। खेतों में पानी लगा देने से भूमि के निकट की वायु का ताप हिमांक बिन्दु से अधिक ही रहता है जिसके फलस्वरूप पाले के स्थान पर ओस पड़ती है।
02. रात्रि में खेत पर जिस दिशा में वायु का बहाव हो उस मेंड़ पर धुआँ करना चाहिए जिससे सम्पूर्ण खेत में धुआँ फैल जाये तथा खेत का ताप बढ़ने से पाला नहीं पड़ेगा।
03. ,पुआल, घास तथा पॉलीथिन का पलवार (Mulch) के रूप में प्रयोग करना चाहिए जिससे खेत की नमी सुरक्षित रहे तथा खेत का ताप हिमांक बिन्दु से ऊँचा बना रहे।
04. फसलों में ऐसी जातियाँ उगानी चाहिए, जो पाले को सहन कर सकें।
05. छोटे पेड़ों को पाले से बचाने के लिए उनके ऊपर घास-फूँस के द्वारा गोल घेरे के रूप ढककर बाँध देना चाहिए।

गर्म तेज हवाओं (लू) से फसलों की सुरक्षा –

जिस प्रकार से पाला फसलों के लिए हानिकारक है ठीक उसी प्रकार लू भी फसलों को हानि पहुँचाती है। लू से फसलों को बचाने के उपाय निम्नलिखित हैं –

01. ऐसी फसलें उगानी चाहिए जो तेज गर्मी तथा लू को सहन कर सकें। जैसे- तरबूज, खरबूजा व ककड़ी आदि।
02. खेतों में घास-फूँस की पलवार का प्रयोग करना चाहिए जिससे भूमि में नमी बनी रहे।
03. तेज हवाओं से फसलों को बचाने के लिए खेतों में पानी उस स्थिति में लगाना चाहिए जब हवा बंद हो, नहीं तो फसलों के गिरने का भय रहता है।
04. यदि झड़ने वाली फसल पक रही हो तो उसे खेत में झड़ने से बचाने के लिए एक-दो दिन पूर्व ही काट लेना चाहिए। जैसे – सरसों की फसल।
05. छोटे पेड़ों को लू से बचाने के लिए घास-फूँस के घेरों से ढक देना चाहिए।
06. फलों के बगीचों को बचाने के लिए उनके चारों ओर वायुरोधी पेड़ों की बाड़ लगानी चाहिए, जो छोटे पेड़ों का वायु आदि से बचाव कर सकें।

प्रतिकूल मौसम से उत्पन्न कीटों और रोगों से फसलों की सुरक्षा

आमतौर पर देखने में आया है कि जब लम्बे समय तक मौसम खराब रहता है तो फसलों में कई प्रकार की बीमारियाँ लग जाती हैं तथा कई प्रकार के कीटों का प्रकोप फसलों में बढ़ जाता है; जैसे – खराब नम मौसम के कारण सरसों की फसल में माहूं (चेपा) लग जाता है। इसके उपचार के लिए मेटासिस्टाक्स के 0.1% घोल का छिड़काव फसल पर करना चाहिए। इसी प्रकार गेहूँ की फसल में अधिक नमी के प्रकोप से गेरुई (Rust) नामक रोग फरवरी महीने में लग जाता है जिसके उपचार के लिए डाइथेन एम-45 का 0.25% का घोल फसल पर छिड़कना चाहिए। इसी प्रकार से अधिक ठण्ड और खराब मौसम से आलू की खेती में झुलसा रोग लग जाता है जिससे पौधों की पत्तियां सूख जाती हैं। इस रोग के उपचार के लिए डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78 की 2 किग्रा मात्रा को 1,000 लीटर पानी में घोलकर फसल पर 10-15 दिन के अन्तराल से 2-3 छिड़काव करना चाहिए।

 

फसलों पर अनुकूल मौसम का प्रभाव

अनुकूल मौसम – जब वायुमंडल में पर्याप्त मात्रा में नमी, उचित ताप, दाब आदि की दशाएं सामान्य होती हैं तो ऐसा मौसम अनुकूल मौसम कहलाता है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि ऐसा मौसम जो त्रुटिपूर्ण वर्षा, ओले, पाला, लू आदि से रहित हो, अनुकूल मौसम कहलाता है।

अनुकूल मौसम फसलों के लिए बहुत लाभदायक होता है तथा उसके कारण अच्छी पैदावार होती है; जैसे –

01. खरीफ की फसलों पर प्रभाव – जैसा की विदित है कि खरीफ की फसलों का जून-जुलाई के महीने में बुवाई का समय होता है, यदि मध्य जून तक वर्षा हो जाती है तो यह बहुत ही लाभदायक होती है तथा फसलों की बुवाई समय पर हो जाती है। इसके बाद फसलों के उगने के बाद 10 से 15 दिन के अन्तराल पर वर्षा होने से फसलों में अच्छी वृद्धि होती है तथा उनका निराई-गुड़ाई का कार्य भी ठीक प्रकार से चलता रहता है तथा अच्छी धूप और नमी के कारण पौधों को अपना भोजन बनाने और जड़ों से आवश्यक भोजन की प्राप्त होती है क्योंकि ताप बढ़ने से भूमि में आवश्यक पदार्थ घुलकर पौधों तक पहुंचते हैं।

इसी प्रकार पौधों पर फूल के समय साफ वातावरण रहने से परागण तथा दाने बनने की क्रियाएं ठीक प्रकार से होती हैं जिससे बीजों और फलों के आकार बड़े हो जाते हैं।

इसके बाद फसल की पकाई के समय अच्छी धूप और गर्मी से बीज जल्दी पक जाते हैं क्योंकि इस अवस्था में पौधों के अंदर वाष्पोत्सर्जन की क्रिया बड़ी तेजी के साथ होती है।

02. रबी की फसलों पर प्रभाव – रबी की फसलों की बुवाई अक्टूबर-नवम्बर में आरंभ होती है। इसके लिए यदि सितंबर के अन्त में या अक्टूबर के आरम्भ में अच्छी वर्षा हो जाती है तो रबी की फसल बोने के लिए जमीन में काफी नमी होती है तथा वायुमंडल में नमी की मात्रा भी ठीक रहती है जिससे फसलों की बुवाई समय पर हो जाती है। फिर फसलों के उगने के लिए मौसम में धूप और हल्की वायु की आवश्यकता होती है। इसके बाद अच्छी धूप और साफ वायुमंडल के रहने से फसलों की वृद्धि तीव्र गति से होती है।

दिसम्बर-जनवरी की वर्षा इस फसल के लिए बहुत अच्छी रहती है तथा यह फसलों को पाले आदि से भी बचा लेती है। इसके बाद फसलों में बोर (पराग) आ जाने पर साफ वातावरण की आवश्यकता पड़ती है।

फसलें मार्च-अप्रैल में पक जाती हैं जिसके लिए तेज धूप एवं साफ वातावरण आवश्यक है तथा उनकी कटाई व भण्डारण आदि के लिए उपयुक्त मौसम ठीक होता है।

03. जायद की फसलों पर प्रभाव – जायद की फसलों की बुवाई का समय जनवरी-फरवरी होता है। यदि मध्य जनवरी में वर्षा हो जाती है तो वह इस फसल के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इसके बाद इन फसलों के लिए तेज गर्मी और गर्म हवाओं का मौसम उपयुक्त माना जाता है। जिससे इन फसलों की पैदावार अच्छी होती है।

 

मौसम पूर्वानुमान उपयोगिता –

मौसम की पूर्व जानकारी हो जाने से कृषकों को अपने कृषि कार्यों में सुविधा हो जाती है। आमतौर पर मौसम के पूर्वानुमान से निम्नलिखित लाभ होते हैं-

01. किसानों को यदि मौसम विभाग द्वारा दी गई वर्षा के प्रति भविष्यवाणी का पता चल जाये तो वह अपने खेतों की तैयारी, बुवाई तथा अन्य कृषि कार्यों को समय पर कर लेंगे।
02. वर्षा न होने की सूचना मिल जाये तो किसान समय पर फसलों की सिंचाई की व्यवस्था कर सकता है।
03. यदि वर्षा होने का पता चल जाये तब उस स्थिति में कृषक अपनी फसलों में पानी न लगाकर सिंचाई पर होने वाले व्यय को बचा सकता है।
04. यदि यह मालूम हो जाये कि आँधी, तूफान, तेज हवायें आने वाली हैं तो किसान अपनी फसलों में की जाने वाली सिंचाई की योजना को टाल सकता है। अतः उस स्थित में फसल को गिरने से रोका जा सकता है।
05. पाला, कुहरा पड़ने की सूचना मिलने पर किसान अपनी फसलों में सिंचाई की व्यवस्था करके फसल को नुकसान से बचा सकता है।