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“मटर की खेती”
◆ महत्व_ मटर एक दलहनी फसल है। इसको मनुष्य दाल तथा चाट के रूप में खाते हैं। इसके अतिरिक्त इसे पशुओं को हरे चारे तथा भूसे के रूप में खिलाया जाता है। मटर में 22% प्रोटीन 65% कार्बोहाइड्रेट 1.8% वसा तथा अन्य पदार्थ पाए जाते हैं ।मटर की फसल को हरी खाद के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
◆ विश्व भर में मटर की खेती मुख्य रूप से भारत, इथोपिया, अमेरिका, जर्मनी, पोलैंड देश में की जाती है।भारतवर्ष में इसकी खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल आदि प्रदेशों में की जाती है। उत्तर प्रदेश में इसकी खेती आगरा, गोरखपुर, मेरठ, मुरादाबाद क्षेत्र में की जाती हैं ।
◆ जलवायु_ इसकी खेती के लिए नम तथा ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 60 सेंटीमीटर से 90 सेंटीमीटर तक होती है वहां यह सफलतापूर्वक उगाई जाती है। इसकी फसल के लिए 20℃-22℃ का ताप उपयुक्त रहता है।
◆भूमि_ मटर की फसल के लिए दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती हैं वैसे यह बलुई तथा मटियार भूमि में भी हो जाती हैं ।
◆ उन्नत जातियां मटर की उन्नत जातियां निम्नलिखित हैं
(i) आर्केल_ यह मटर की यूरोपियन जाती है । यह जल्दी तैयार हो जाती है । इसकी फलियां 60 से 70 दिन में तोड़ने योग्य हो जाती हैं । इसकी फलियां 8 से 10 सेंटीमीटर लंबी और 5 से 6 दानों वाली होती है ।इसकी फलियों के उपज 70 से 80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है ।
(ii) मधु _ मटर की यह मध्यम अवधि जाति मानी जाती है। इसकी फलियां 75 से 80 दिन में तोड़ने योग्य हो जाती हैं। इसकी फलियों की उपज 85 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
(iii) जवाहर मटर _ यह मध्यम अवधि वाले जाति है। इसकी फलियां 70 से 75 दिन में तोड़ने योग्य हो जाती है। इसकी फलियां 6 से 7 सेमी लंबी होती हैं। इसकी फलियों की उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
(iv) हंस _ यह मध्यम अवधि में पकने वाली मटर की जाति है। यह 115 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके दाने सफेद रंग के होते हैं। इसकी उपज 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। यह मुख्यतया दाल के लिये उगायी जाती है।
◆ खेत की तैयारी _इसकी फसल की बुवाई के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 15 सेंटी मीटर गहरी करनी चाहिए । फिर 2 से 3 जुताई देशी हल तथा हैरो से करके पाटा लगाना चाहिए जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए ।
◆ बुवाई का समय मटर की फसल की बुवाई का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक माना जाता है ।
◆ बीज की मात्रा मटर की फसल के लिए बीज की निम्नलिखित मात्रा उपयुक्त रहती है ।
(i) दाने वाली मटर 75 से 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
(ii) सब्जी वाली मटर 100 से 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
◆ बीजोपचार_ बीज को बोने से पूर्व 0.25% की दर से थाइरम या कैप्टान से उपचारित कर लेना चाहिए।
◆ बुवाई की विधि_ मटर की बुवाई हल के पीछे कूँड़ में करनी चाहिए तथा कूँङो के बीच 30 सेंटीमीटर का अंतर तथा कूँड़ में बीज 4.5 सेंटीमीटर गहराई पर डालना चाहिए। दो पौधों के बीच का अंतर 5 से 7 सेंटीमीटर रखना चाहिए।
◆ खाद एवं उर्वरक _ मटर एक दलहनी फसल है अतः इसे विशेष खाद्य की आवश्यकता नहीं होती फिर भी गोबर की खाद जुताई के समय फसल बोने से 1 माह पूर्व दे देनी चाहिए।
उर्वरक में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 4 किलोग्राम पोटाश बुवाई के समय बीज की कतार से 5 सेंटीमीटर दूरी पर खेत में बीज से 3 से 4 सेंटीमीटर गहराई पर देनी चाहिए।
◆ सिंचाई तथा जल निकास_ आवश्यकता पड़ने पर पहली सिंचाई फूल आने से पूर्व तथा फसल बोने के 40 से 45 दिन बाद करनी चाहिए तथा दूसरी सिंचाई फलियाँ बनते समय फसल बोने के लगभग 60 दिन बाद करनी चाहिए । मटर की फसल में यदि वर्षा के कारण अतिरिक्त जल भर जाए तो उसकी निकासी कर देनी चाहिए ।
◆ निराई-गुड़ाई तथा खरपतवार नियंत्रण_ फसल को खरपतवारों से बचाने के लिए फसल बोने के 25 से 30 दिन बाद एक निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर दूसरी निराई-गुड़ाई फसल बोने के 40 से 45 दिन बाद कर लेनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए बेसालीन के एक किलोग्राम को 1,000 लीटर जल में घोलकर बुवाई से पूर्व भूमि में छिड़काव करके हैरो द्वारा जुताई करनी चाहिए ।
◆ रोग नियंत्रण मटर की फसल में निम्नलिखित रोग हानि पहुंचाते हैं-
(i) चूर्णी फफूंदी रोग_ यह फफूंदी के द्वारा फैलता है। इस रोग के कारण पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसी रचना दिखाई देती है। इससे फसल को काफी हानि होती है। इसके उपचार हेतु 3 किलोग्राम घुलनशील गंधक: इलोलास या सल्फेक्स को 1,000 लीटर जल में घोलकर एक हेक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए ।
(ii) गेरुई रोग_ यह रोग फफूंदी के द्वारा लगता है । इस रोग के कारण पौधे की पत्तियों तथा तनों पर पीले धब्बे पड़ जाते हैं, तथा बाद में इनका रंग भूरा तथा काला पड़ जाता है । इस रोग की रोकथाम के लिए जिनेब (डाइथेन एम-45) के 2.5 किग्रा को 1,000 लीटर पानी में घोलकर एक हैक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
◆ कीट नियंत्रण_ किसान भाइयों मटर की फसल में निम्नलिखित कीट हानि पहुंचाते हैं-
(i) तना मक्खी_ इस कीट की गिडारें पौधे के तने के अंदर घुसकर तने को अंदर से खोखला कर देती है जिससे पौधा सूख जाता है। इस कीट की रोकथाम के लिए फॉस्फेमिडान 100 ई.सी. के 250 मिली को 800 लीटर जल में घोलकर 1 हेक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
(ii) माँहू_ किसान भाइयों ये हल्के रंग के छोटे कीट होते हैं जो कोमल पत्तियों का रस चूसते हैं और पत्तियों पर चिपचिपा पदार्थ छोड़ते हैं। ये फलियों को भी हानि पहुंचाते हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए मेलाथियोन 50 ई.सी. की 3.0 लीटर को 1,000 लीटर जल में घोलकर एक हेक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
(iii) फली बेधक_ इस कीट की गिंडारे फलियों में छेद करके अंदर घुस जाती है तथा दानों को खा जाती हैं।इस कीट की रोकथाम के लिए मेलाथियोन 50 ई.सी. के 3.0 लीटर को 1000 लीटर जल में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
◆ फलियों की तोड़ाई _ जब फलियों में दाने भर जाए तो 8 से 10 दिन के अंतराल से उनको तोड़ते रहना चाहिए तथा साथ-साथ मंडी में ले जाकर बेच देना चाहिए।
◆ कटाई _ दाने के लिए फसल के पकने पर फसल को दराँती से काटकर टाट की पल्लियों में बांधकर खलियान में ईकट्ठा कर लेते हैं।
◆ मंडाई _ मंडाई के लिए फसल को खलियान में अच्छी प्रकार धूप में सुखाते हैं तथा फिर उसके ऊपर बैलों की दाँय चलाकर दानों को अलग कर लेते हैं।
◆ भंडारण_ दानों को भंडार में रखने से पूर्व अच्छी प्रकार सुखा लेना चाहिए फिर बोरों में भरकर शुष्क तथा सुरक्षित भंडार में रखना चाहिए।
◆ विपणन _ बाजार में मटर की काफी मांग रहती है इसलिए किसान को अपनी आवश्यकता से अधिक फसल को बाजार में बेच देना चाहिए।
◆ उपज _ (i) किसान भाइयों मटर की हरी फलियों की उपज 100 से 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर।
(ii) दाने की फसल 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

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