बीज अनेक रोगजनकों (फफूंदी, जीवाणु, विषाणु) कीड़ो व सूत्रक्रमि आदि के वाहक हो सकते हैं, जो भण्डारण के समय अथवा खेत में बीज फसल को क्षति पहुंचा सकते हैं, जिससे बीज गुणता व उपज में हास होता है। कुछ बीजों में प्रसुप्ति व अंकुरण बाधक पदार्थों को उपस्थिति एवं आवश्यक जीवाणुओं की अनुपस्थिति के कारण अंकुरण बाधित होता है। बीज संसाधन (सफाई, सुखाई, छटाई आदि) के बाद बीज के साथ भण्डारण अथवा बोने से पूर्व कुछ भौतिक व रासायनिक क्रियायें की जाती हैं, जिन्हें बीज उपचार कहा जाता है।

बीज उपचार के लाभ

बीज उपचार के अनेक लाभ हैं-

(i) बीजजन्य रोगों का नियंत्रण- सही बीज उपचार अधिकतर बीजजन्य रोगों की रोकथाम करने में सक्षम होता है।

(ii) बीज का रक्षण- बीजोपचार से बीज के ऊपर एक रक्षक लेप चढ़ जाती है जो बीजों को बीजजन्य व मृदाजन्य सूक्ष्मजीवों के साथ-साथ उन्हें सड़ने से बचाती है।

(iii) अंकुरण में सुधार – बीजों को उचित कवकनाशी से उपचारित करने से विभिन्न कवक बीजावरण को क्षति नहीं पहुंचा पाते, जिससे बीज की जैविकता बनी रहती है। प्रसुप्ति समाप्त करके, अंकुरण बाधक पदार्थों को दूर करके अथवा अंकुरण वर्धक पदार्थों द्वारा बीजोपचार करके भी अंकुरण में वृद्धि की जा सकती है।

(iv) भण्डारण कीटों से सुरक्षा – बीज किसी उचित कीटनाशी से उपचारित करने के पश्चात भण्डारगृह में भी कीट क्षति से बचा रहता है।

(v) मृदा कीटों का नियंत्रण – उपचारित बीज पर रसायनों का लेप बुवाई के बाद भी अनेक मृदा कीड़ों से बीज तथा पौध की रक्षा करता है, जिससे पौधे का विकास निर्विध्न होता है।

(vi)बीज उत्पादन लागत में कमी- उपचारित बीज बोने से फसल की वृद्धि अवस्था में कीड़ों व रोगों की संभावना कम हो जाती है जिससे फसल सुरक्षा पर होने वाला खर्च बच जाता है।

(vii) लाभदायक कीड़ों की वृद्धि – फसल सुरक्षा के लिए रसायनों का छिड़काव करने से कुछ लाभदायक (परागण) में कीड़ों की कमी से उपज प्रभावित होती है उपचारित बीज बोने से इनकी संख्या में वृद्धि होती है।

(viii) गुणता संपन्न बीज का उत्पादन – उपचारित बीज बोने से फसल स्वस्थ रहती है, जिससे उत्पादित बीज उच्च गुणवत्ता वाला होता है।

बीज उपचार की विधियाँ

बीजोपचार की अनेक विधियाँ, इस प्रकार हैं-

(i) उचित सफाई – विभिन्न रोगों से प्रभावित बीज खुरदरे, विकृत, विवर्णित तथा हल्के हो जाते हैं, जिन्हें बीज भार, पृष्ठ गठन, रंग आदि के आधार पर पृथक्करण करने वाली पृथक्कारी मशीनों के द्वारा अथवा हाथ से चुनकर बीज ढे से अलग किया जा सकता है। उचित सफाई से संक्रमित भूसीनुमा अक्रिय पदार्थ भी बीज से अलग हो जाते हैं।

(ii) यांत्रिक क्षति में कमी – बीच में नमी अधिक होने और संसाधन मशीनों के ठीक से काम ना करने से बीज में यांत्रिक क्षति अधिक होती है। ऐसे बीजों पर रोगों व कीड़ो का आक्रमण अधिक होता है। अतः बीच में यांत्रिक क्षति कम करके रोगों और कीड़ों का प्रकोप कम किया जा सकता है।

02. भौतिक उपचार –

इनकी कई विधियाँ हैं-

(i) सुरक्षित नमी स्तर – बीज में संक्रमण को रोकने की सर्वाधिक प्रभावी विधि बीजों को सुरक्षित नमी स्तर तक सुखाना है, जिस पर विभिन्न रोगजीव नहीं पनपते, जो विभिन्न बीजों के लिए अलग-अलग है, जैसे – धान्यों के लिए 12%, कपास व सोयाबीन के लिए 10% दलहनों के लिए 9%, तिलहनों के लिए 8-10% व सब्जियों के लिए 8% आदि।

(ii) बीजों को कुछ समय के लिए उचित भण्डारण बीजजन्य रोगों का जीवन चक्र बहुत छोटा होता है। यदि बीज उचित दशाओं (कम नमी व कम ताप) में कुछ समय के लिए भण्डारण करने के बाद बोयें, तो रोगजनक स्वत: समाप्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिए हमारे देश में बाजरे के अर्गट रोग का रोगजनक 5-8 माह में (बुवाई के समय से पूर्व) समाप्त हो जाता है। अतः इस रोग द्वारा संक्रमित बीज को उचित भण्डारण के बाद अगले वर्ष निडर होकर बोया जा सकता है।

03. रासायनिक उपचार

बीजजन्य रोगजनकों को नष्ट करने अथवा रोकथाम के लिए कवकनाशी, प्रतिजैविकों अथवा कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है, जिससे बीज, भण्डारण के दौरान सुरक्षित रहता है तथाा खेत में बोने पर स्वस्थ एवं ओजपूर्ण विकसित होती है।

रसायनों का प्रयोग विभिन्न प्रकार से किया जा सकता है-

(i) धूल उपचार – इस विधि में घुमाने वाले ड्रम सीमेण्ट मिलाने वाली मशीन में बीज व रसायन चूर्ण को डालकर मिलाया जाता है। कभी-कभी बुवाई के ठीक पूर्व सीडड्रिल के हॉपर बॉक्स में बीजों के साथ कवकनाशी की अपेक्षित मात्रा मिश्रित की जाती है। इस विधि में एग्रोसन जी.एन.,सोरेसन, हैक्सान, थायरम, केप्टान, बोर्डो मिश्रण, बर्गण्डी मिश्रण फाइटोलॉन, जिराम, बी.एच.सी., डी.डी.टी. नामक रसायन रोगाणुओं व कीटों से बीजों को बचाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। इन रसायनों की सहायता से अनेक रोग, जैसे – गेहूं, जौं व जई का अनावृृत कण्ड, गेहूं का बण्ट रोग मूंगफली व अन्य फसलों की जड़ो के सड़ने का रोग, ज्वार का दाना कण्ड, मटर का पादप सड़न रोग तथा अनेक फसलों का अंगमारी, अलसी की गेरुई व विगलन तथा कपास का ब्लैक आर्म रोग नष्ट हो जाते हैं।

(ii) सौर उपचार – विभिन्न बीजजन्य रोगों व कीड़ों को नष्ट करने के लिए इस उपचार की सहायता ली जाती है। यह विधि मई-जून के महीनों में (जब तापमान 45° से 50℃ हो) अपनायी जाती है। इस विधि में बीजों को सवेरे लगभग 2 घण्टे पानी में भिगोने के बाद फर्श पर फैलाकर धूप में सुखाया जाता है। इस उपचार के द्वारा गेहूं के अनावृत कण्ड रोग के रोगाणुओं एवं कपास के गुलाबी कीट को आसानी से नष्ट किया जा सकता है।

(iii) शुष्क बीजों को गर्म करना – कुछ बीजों को कुछ समय ऊंचे तापमान पर रखने से कुछ रोगजनक मर जाते हैं। टमाटर का मौजेक विषाणु सूखे बीजों को 70℃ तापमान पर 3 दिन रखने से समाप्त हो जाता है, लेकिन अत्यधिक ताप बीजांकुरण को प्रभावित कर सकता है।

(iv) गर्म पानी उपचार – बीजों को कुछ समय के लिए गर्म पानी में भिगोकर रखने से भी रोगजनकों से छुटकारा मिल जाता है। फूलगोभी के बीजों को 50℃ तापमान वाले पानी में 20 मिनट तक रखने से जेन्थोमोनाज कम्पेस्ट्रिस नामक जीवाणु मर जाता है। यह विधि बंदगोभी, गाजर, खीरा, प्याज, पालक, मिर्च, मूली, शलजम आदि के लिए प्रयोग की जा सकती है। इस उपचार से एक लाभ यह भी है कि कुछ अंकुरण बाधक पदार्थ बीज की धुलाई से अलग हो जाते हैं, जिससे अंकुरण बढ़ जाता है। बहुत से भण्डारगृहों में कीड़ों को मारने के लिए गर्म पानी के नल लगाये जाते हैं। यह विधि उन बीजों के लिए प्रयोग में नहीं लाई जा सकती है जो नमी सोखते हैं, जिससे बीजावरण फट जाते हैं (जैसे- दलहन) अथवा चिपचिपा पदार्थ स्रावित करते हैं, जैसे- अलसी। इस विधि में बीजों को झरझरे सूती कपड़े की थैले में आधा भरकर जल ऊष्मक में गर्म करने के बाद ठण्डा करके अच्छी तरह सुखाते हैं। कभी-कभी पानी के स्थान पर तेल का प्रयोग किया जाता है।

(v) नमकीन जल उपचार – बीजों को साधारण नमक के 10% के घोल में डुबाने से संक्रमित बीज व स्कलेरोशियम ऊपर तैर जाते हैं, जिन्हे हाथ से अलग किया जा सकता है। गेहूं गेगला (Anginat tritici) से युक्त बीजों को 20% नमक के घोल में डुबोकर अलग किया जा सकता है।

(vi) जल वाष्प उपचार – यह विधि शुष्क बीजों को गर्म करने अथवा गर्म जल उपचार से अधिक सुरक्षित एवं प्रभावी है। इसमें कम समय व कम तापमान की आवश्यकता होती है। इस विधि में बीजों को सुखाना आसान है। तापमान नियंत्रण संभव है, दलहनी बीजों के बीजावरण अविकल रहते हैं और अलसी के बीज लसदार नहीं होते।

बीजोपचार यंत्र

बीजोपचार रसायनों का प्रयोग करने के लिए विभिन्न प्रकार के यंत्र काम में लाये जाते हैं। उत्तम बीजोपचार यंत्र बीज और रसायन की अल्प मात्रा का प्रयोग करता है। यह रसायन को प्रत्येक बीज की सतह पर एक समान फैला देता है, बीजोपचार पदार्थ का प्रयोग धूल, पंक, घोल, फुहार, या कुहासे, जिस रूप में करना होता है उसी के अनुसार यंत्र काम में लाया जाता है।

(i) मिश्रणकारी ड्रम बीजोपचार यंत्र – ड्रम दो आधारों पर इस प्रकार टिका रहता है, जिससे इसे आसानी से घुमाया जा सके। घुमाने के लिए ड्रम के भीतर एक 25 मिमी मोटा पाइप कोण बनाते हुए लगाया जाता है। बीज तथा उपचार रसायन को ड्रम में डालकर घुमाया जाता है, जिससे बीज के बार-बार पलटने से उस पर रसायन की परत चढ जाती है।

(ii) पंक बीजोपचार यंत्र – इस यंत्र का प्रयोग पंक बीज मिश्रण तैयार करने के लिए किया जाता है। इसमें पंक तथा बीज की नियत मात्रायेे प्राप्त करने के लिए व्यवस्था होती है, पंक के लिए पंक प्याला (Slurry cup) तथा बीज के लिए बीज पलड़ा (Seed pan) लगा रहता है। पंक टंकी में पर्याप्त मात्रा में पंक भरा रहता है। बीज और पंक की नियत मात्रायेे मिश्रण कक्ष में पहुंचती हैं, जहां दोनों वस्तुुएंँ अच्छी तरह मिश्रित हो जाती हैं यह यंत्र सभी प्रकार के बीजों के लिए प्रयोग किया जा सकता है। पंक टंकियाँ विभिन्न आकार की बनाई जाती हैं और उपचार की दर आवश्यकतानुसार बदली जा सकती है।

(iii) पैनोंजन बीजोपचार यंत्र – इस मशीन का बीज तथा रसायनमापी साधन पंक बीजोपचार यंत्र के समान होता है, लेकिन इस मशीन में पंक बनाने के बजाय रसायन सामग्री का सीधे प्रयोग किया जाता है। इस बीजोपचार यंत्र में द्रव रसायन का प्रयोग किया जाता है। मिश्रण कक्ष में रसायन गिरने के बाद बीजों की आपस में रगड़ने की क्रिया से उनमें उपचार सामग्री अच्छी तरह मिल जाती है। बीज पलड़े में बीज के भार का समायोजन करने की व्यवस्था होती है। कभी-कभी इस यंत्र में कीटनाशी.तथा कवकनाशी दोनों के लिए अलग-अलग टंकियाँ होती है और नालियों द्वारा दोनों रसायन नियत दर से मिश्रण कक्ष में पहुंचते हैं। ये यंत्र अनेेक आकार में मिलते हैं।

(iv) मिस्टोमेटिक बीजोपचार यंत्र- इस यंत्र में रसायन का कुहासे के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसमें प्याले द्वारा नियत मात्रा में निकले रसायन को कुहासे में बदलने के लिए विशेष व्यवस्था होती है, जिसके लिए इसमें एक खाँँचेदार चक्रिका लगी होती है। रसायन जब तेजी से घूमती हुई चक्रिका पर गिरता है, तो रसायन की बूंदे कुहासे में बदल जाती हैं और यह फुहार सीधे गिरते हुए बीजों पर पड़ती है। उचित आकार के रसायन प्याले और पलड़े के भार का चयन करके अभीष्ट बीजोपचार दर निर्धारित की जा सकती है।

(v) ऑगर द्वारा उपचार – जब बीज को ऑगर या पेंच संवाहक द्वारा किसी धान्य कोष्ठ से अन्य स्थान पर पहुंचाने के लिए निकाला जाता है, तब ऑगर में प्रवेश करने से पूर्व बीज धारा पर बूंद-बूंद करके तरल रसायन टपकाया जाता है, जिससे ऑगर में गुजरने पर बीच में रसायन अच्छी तरह मिल जाता है। धूल या पंक सामग्री भी इसी प्रकार बीज में मिलाई जा सकती है। लेकिन इसमें कुछ कठिनाई होती है।

(vi) बेलचे के द्वारा उपचार – यह विधि सबसे सरल है। उपचार किये जाने वाले बीज को किसी सूखे तथा साफ फर्श पर 10 से 15 सेमी मोटी परत में फैलाया जाता है और इसके ऊपर तनुकृत रसायन एक समान ढंग से छिड़ककर बेलचे से उलट-पलटकर अच्छी तरह दिया जाता है।