अभी फरबरी का महीना है, सर्दियाँ ख़तम होने ही वाली हैं और होली महोत्सव के कुछ दिनों बाद ही किसान नए उल्लास के साथ नए फ़सलों की खेती की तैयारियां शुरू कर देंगे। हमने सोचा कि क्यों न आने वाले समय में होने वाली कुछ फ़सलों के बारे में लिखा जाये जिससे किसान भाइयों को अधिकतम फायदा मिले।

सबसे पहले हमने चुना कपास की खेती। तो इस लेख में हम कपास के फसल की बात करेंगे। इसके अलावा में दूसरे लेख के माध्यम से बैंगन, उरद आदि फ़सलों के बारे में भी जानकारी दूंगा।

वानस्पतिक नाम- गौसीपियम स्पेसीज

कुल- मालवेसी

01. महत्व – कपास की खेती का मानव जीवन में बहुत अधिक महत्व है कपास के धागे से सूती वस्त्र बनाए जाते हैं तथा आजकल टेरीकाट आदि कपड़ों में भी सूती धागों का मिश्रण किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके बिनौले से वनस्पति घी बनाया जाता है। तथा बिनौले की खली पशुओं को खिलाने के काम आती है।

02. उत्पत्ति- कपास की उत्पत्ति के स्थान के बारे में वैज्ञानिकों के एकमत नहीं है अधिकतम वैज्ञानिक कपास का जन्म स्थान भारतवर्ष मानते हैं जबकि कुछ का मत है कि कपास का जन्म स्थान दक्षिण अमेरिका है।

03. उत्पादन केंद्र- संसार में कपास की खेती बहुत देशों में होती है जिनमें प्रमुख राष्ट्र- संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, रूस, मिस्र, मेक्सिको आदि हैं।

हमारे देश में कपास की खेती पंजाब, गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा उत्तर प्रदेश आदि राज्य में की जाती है।

04. क्षेत्रफल- भारत वर्ष में लगभग 75 लाख हेक्टेयर भूमि में कपास की खेती की जाती है जिसमें लगभग 75 लाख टन उत्पादन प्रतिवर्ष किया जाता है उत्तर प्रदेश में लगभग 21 हजार हेक्टेयर भूमि में कपास की खेती की जाती है जिसमें लगभग 25 हजार टन कपास का उत्पादन होता है।

05. जलवायु- कपास की फसल के लिए 20°C-30°C ताप की आवश्यकता होती है। प्रारंभिक दिनों में फसल की वृद्धि के लिए अधिक ताप और नमी की आवश्यकता होती है। परंतु गूलर आने के समय स्वच्छ मौसम तथा रात में ठंड की आवश्यकता पड़ती है। गूलर पकते समय दिन में चमकिली धूप की आवश्यकता होती है।

06. भूमि- कपास की फसल के लिए दोमट मिट्टी उत्तम समझी जाती है। वैसे कपास की फसल काली मिट्टी जलोढ़ मिट्टी तथा लाल मिट्टी आदि में भी उगाई जाती हैं।

07. उन्नत जातियां- कपास की उन्नत जातियां निम्नलिखित हैं-

(क) देसी जातियां-

(i) श्यामली- इस जाति की कपास उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इसके पौधों का रंग हरा तथा फूल सफेद रंग के तथा पंखुड़ियों पर लाल धब्बे पाए जाते हैं। इसके रेशे की लंबाई 1.9 सेंटीमीटर से 2.2 सेंटीमीटर तक होती है।उपज 10 क्विंटल/हैक्टेयर तथा रुई की प्रतिशतता लगभग 35 होती है।

(ii) लोहित- इस जाति की कपास अधिक नमी और सूखे को सहन करने की क्षमता रखती है। इसके पौधे लाल रंग के तथा फूल गुलाबी रंग के होते हैं इसके रेशे की लंबाई 1.70 सेंटीमीटर से 1.75 सेंटीमीटर तथा कपास की उपज लगभग 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है रूई की प्रतिशतता लगभग 34 से 35 होती है।

(iii) जी.-27- यह जाति उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त मानी जाती है इसके पौधों का रंग लाल तथा फूल गुलाबी हो होता है इसकी फसल 165 से 180 दिन में पक जाती है। इसके रेशे की लंबाई 1.8 सेंटीमीटर होती है इसकी उपज 14 से 15 क्विंटल/ हेक्टेयर तथा रुई की प्रतिशतता लगभग 34 होती है।

(ख) अमेरिकन जातियां- कपास की प्रमुख अमेरिकन जातियां निम्नलिखित हैं

(i) प्रमुख- यह जाति उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त समझी जाती है इसकी फसल 195 से 200 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसके रेशे की लंबाई लगभग 2.4 सेंमी  होती है। इसकी कपास का उत्पादन लगभग 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है इसमें रुई की प्रतिशतता 34 होती है।

(ii) एफ-414- इस जाति की फसल 190 दिन में पककर तैयार हो जाती है इसके रेशे की लंबाई 2.3 सेमी होती है इसकी कपास का उत्पादन लगभग 15 से 16 कुंतल प्रति हेक्टेयर होता है तथा रुई की प्रतिशतता 34 होती है।

(iii) एफ-320- कपास की इस जाति का पौधा हरे रंग का होता है। इसकी कपास की पैदावार 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके रेशे की लंबाई लगभग 2.32 सेमी तथा रुई की प्रतिशतता 34 होती है।

(iv) अन्य नई जातियां- कपास के उपरोक्त जातियों के अतिरिक्त संकर-6, संकर-10, सुजाता, कीर्ति, संगम, सुविन तथा पूसा अगेती आदि भी नई जातियां हैं।

08.अच्छे कपास के गुण-

01. रुई का रंग चमकदार तथा सफेद होना चाहिए।

02. रेशा बारीक, सामान्य मोटाई वाला लंबा तथा मजबूत होना चाहिए।

03. रेसों में पेंचों की संख्या/सेमी अधिक होनी चाहिए।

04. कपास में रेशे का प्रतिशत बिनौला से अधिक होना चाहिए।

05. रुई में काउण्ट की संख्या अधिक होनी चाहिए।

• नोट- रुई की 0.48 किग्रा मात्रा में 770.6 मीटर लंबाई के जितने धागे बनते हैं उसे काउण्ट कहते हैं।

09. खेत की तैयारी-  कपास की खेती के लिए रबी की फसल की कटाई के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करके फिर 2-3 जुताई देशी हल तथा कल्टीवेटर से कर देनी चाहिए जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए। तथा नमी संरक्षित करने के लिए पाटा लगा देना चाहिए।

10. बुवाई का समय-कपास की फसल की बुवाई सिंचाई के साधनों वाले क्षेत्रों में 15 अप्रैल से 15 मई तक की जाती है। तथा जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है वहां पर वर्षा होने के बाद जून-जुलाई में की जाती है।

11. बीज की मात्रा- कपास की फसल की बुवाई के लिए बीज की मात्रा इस प्रकार बोई जाती है-

(i) देसी कपास- 15 से 18 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।

(ii) अमेरिकन कपास- 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।

12. बीजोपचार-  बीज की बुवाई के लिए उत्तम श्रेणी के बीच का चयन करना चाहिए तथा बीज को धूप में अच्छे प्रकार से सुखा लेना चाहिए। फिर प्राप्त बीच को 4 – 5 घंटे तक पानी में भिगोकर उसको राख और गोबर के साथ धीरे-धीरे मसलकर छाया में सुखा देना चाहिए। ऐसा करने से बीज के ऊपर का रेशा नष्ट हो जाता है तथा बीज बुवाई के लिए तैयार हो जाता है।

बीज से रेशे को रासायनिक विधि से भी पृथक कर सकते हैं। इसके लिए बीज को सांद्र सल्फ्यूरिक अम्ल या हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के 100 मिली. से 1 किग्रा बीज को 2 से 3 मिनट तक उपचारित करने से बीज के ऊपर का रेशा बीज से पृथक हो जाता है। बीज को अंकुरण के समय रोग आदि से बचाने के लिए

2 ग्राम सक्सीनिक अम्ल से 4-5 घंटे तक उपचारित करके बोना चाहिए।

13. बुवाई की विधि- कपास की बुवाई हल के पीछे कूंड में करनी चाहिए। कूंड की गहराई 4 से 5 सेमी होनी चाहिए तथा एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति की दूरी 60 सेमी रखनी चाहिए। इसके अतिरिक्त डिबलर के द्वारा भी इसकी बुवाई की जा सकती है।

14. पौधों का अंतरण-पौधों का अंतरण इस प्रकार से रखना चाहिए।

(i) देसी कपास – 60 x 30 सेमी

(ii) अमेरिकन कपास – 60 x 4 5 सेमी

15. खाद तथा उर्वरक की मात्रा – कपास की फसल के लिए खेत में 10 से 15 टन गोबर की खाद खेत तैयार करते समय डालनी चाहिए। इसके अतिरिक्त उर्वरक में 60 किग्रा नाइट्रोजन, 50 किग्रा फास्फोरस तथा 40 किग्रा पोटाश की मात्रा की आवश्यकता होती है।

16. खाद देने की विधि- उर्वरक देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में नमी की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस और पोटाश की संपूर्ण मात्र बुवाई के समय कूंडो में देनी देनी चाहिए इसके अतिरिक्त नाइट्रोजन की आधी मात्रा कलियां आने के समय देनी चाहिए।

17. सिंचाई तथा जल निकास – कपास की फसल बोने के बाद 35 से 40 दिन तक सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है इसके बाद यदि पौधे मुरझाने लगे तो उसमें सिंचाई कर देनी चाहिए। जब फसल में फूल आने आरंभ हो जाए तो खेत में यदि नमी की कमी हो तो अवश्य ही सिंचाई करनी चाहिए यदि इस समय खेत में पर्याप्त नमी नहीं होगी तो गूलर झड़ने लगेंगे।

18. निराई-गुड़ाई तथा खरपतवार नियंत्रण – कपास की फसल में पहली निराई-गुड़ाई फसल बोने के लगभग 30 दिन बाद सूखे में ही कर देनी चाहिए और साथ ही साथ अतिरिक्त पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए। दूसरी निराई-गुड़ाई फूल आने से पूर्व सिंचाई के बाद करनी चाहिए तथा पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए जिससे कपास के पौधों पर अच्छा फल आयेगा।

• रासायनिक विधि से खरपतवार पर नियंत्रण हेतु 2 किग्रा बेसालिन 1,000 लीटर जल में घोलकर बुवाई से पूर्व एक हेक्टेयर भूमि में छिड़क कर मिट्टी में अच्छी प्रकार से मिला देना चाहिए ऐसा करने से खेत में खरपतवार नहीं उग पायेंगे।

रोग नियंत्रण- कपास की फसल में निम्नलिखित रोग लगते हैं-

(i) उकठा रोग (wilt disease) – इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां पीली होकर मुरझा जाती है। तथा पौधों से झड़ने लगती हैं। और कुछ समय बाद पौधा सूख जाता है। इस रोग की रोकथाम के लिए खेत में जिंक की पूर्ति करनी चाहिए तथा फफूंदी विरोधी दवाइयों का फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

(ii) जड़ की सड़न- (Root Rot)- यह रोग पौधों की जड़ में फफूंदी के कारण उत्पन्न होता है इस रोग के प्रभाव से पौधे की जड़-सड़कर गल जाती हैं तथा पौधा सूख जाता है यह रोग फसल में न लग पाये बीज को बोने से पहले 5 ग्राम ब्रेसीकाल से 1 KG बीज उपचारित करके बोना चाहिए।

(iii) एन्थ्रेक्नोज- इसको श्याम ग्रण रोग भी कहते हैं। इस रोग से छोटे पौधे तथा गूलर प्रभावित होते हैं। जिसके कारण रुई का रंग पीला या बादामी हो जाता है इस रोग के उपचार हेतु फसल पर ब्लाइटाक्स के 2 किग्रा को 1,000 ली. जल में घोलकर प्रति हेक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

कीट नियंत्रण – कपास की फसल में निम्नलिखित कीट हानि पहुंचाते हैं-

(i) कपास के गुलाबी सूंडी (pink ball worm) – यह कीट फसल के लिए बहुत हानिकारक है इसकी सूंडियाँ कपास की कलियों, फूलों और गूलरों के अंदर घुसकर खा जाती हैं। जिससे ये सूख जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए 1.5 लीटर में मैटासिस्टाक्स को 1,000 लीटर जल में घोलकर एक हेक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

(ii) चितकबरी सूंडी (spotted ball worm) – यह सूंडी पहले पौधों के ऊपरी मुलायम भाग को खाती है फिर कलियां, फूलों और डोडे (गूलर) को अंदर घुसकर खा जाती है। इसकी रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ई. सी. के 1.25 ली. को 1,000 लीटर जल में घोलकर एक हेक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

(iii) पत्ती लपेटने वाली सूंडी (Lead roller) – इस कीट की सूंडीया पत्ती को लपेटकर खोल के आकार की बना लेती हैं और उसके अंदर छिपकर पत्ती को खाती रहती हैं। इसकी रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ई. सी. को 1,000 लीटर पानी में घोलकर इसको एक हेक्टेयर खड़ी फसल में छिड़काव करना चाहिए।

उपज (Yield)- देसी कपास की उपज 7-9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा अमेरिकन कपास की उपज 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा हाइब्रिड-4, बरालक्ष्मी आदि की उपज 25 से 35 कुंतल/है. निकलती है।

• कपास में रुई की मात्रा लगभग 30 से 35% होती है तथा बिनौले  में तेल की मात्रा 15 से 18% होती है।


1 Comment

फरवरी में बोन वाले फसल - उरद की खेती - कृषि और किसान · February 20, 2018 at 8:08 pm

[…] चाहता हूँ। जैसा कि मैंने अपने पिछले लेख (कपास की खेती) में कहा था कि फरवरी से जून तक के महीने […]

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