पशुओं में थनैला रोग

यह दुधारू पशुओं के अयन का एक बहुत ही भयानक छूतदार रोग है, जो बैक्टीरिया द्वारा फैलता है। यदि प्रारम्भ से ही इस बीमारी की देखभाल उचित रूप से न की गई, तो यह पशु के थनों को बेकार करके उसके दूध को सुखा देती है। यह रोग चूँकि अयन से सम्बन्धित है, अतः केवल मादा पशुओं को ही होता है। मुख्य रूप से गाय, भैंस, और बकरी ही इसके शिकार होते हैं। इस बीमारी से पशु मरते कम हैं, परंतु अयन सूखकर वे सदैव के लिए बेकार हो जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक दृष्टिकोण से भी यह रोग बहुत ही भयानक है। जिससे लाखों पशु देश में प्रतिवर्ष बेकार होकर पशुपालन तथा राष्ट्र को भारी क्षति पहुंचाते हैं। अच्छे दुधारु पशुओं में इसका प्रकोप होता है।

पंजाब, मैसूर, और मुंबई में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा की गई छानबीन के अनुसार – यह रोग भारत में एक समस्या है। गाँव की अपेक्षा शहरों में तथा भैंसों की अपेक्षा गायों में यह रोग अधिक होता है।

 

रोग के कारण

यह मादा पशुओं में जीवाणु, विषाणु, फफूंद अथवा माइकोप्लाज्मा से होने वाला रोग है। यह रोग दुधारु पशुओं में वर्ष में किसी भी समय एवं ब्यांंत की किसी भी अवस्था में हो सकता है। यह रोग मुख्यतः अयन अथवा थन में चोट लगने, पशुशाला में अस्वच्छता, थन के घाव मेे संक्रमण, ग्वाले द्वारा गलत तरीके से दुग्ध दोहने या पशु विक्रय करते समय उसका दुग्ध उत्पादन अधिक दिखाने हेतु थनों में अधिक समय तक दूध रोके रखने से बछड़े द्वारा दूध पीते समय पहुंचाई गई चोट एवं तारबन्दी के घाव आदि से होता है।

रोग का फैलाव

01. पशु एवं पशु आवास की अस्वच्छता से रोग फैल सकता है।

02. ग्वाले के हाथ व कपड़ों की अस्वच्छता से।

03. संक्रमित पशु के दूध के उपयोग अथवा सम्पर्क में आने से।

 

रोग के लक्षण

01. अयन अथवा थन में सूजन, कड़ापन एवं दर्द।

02. अयन या थनों को छूने पर गर्म व पीड़ादायी।

03. विकारग्रस्त थन से पानी जैसा, फटे दूध की तरह या दही की तरह जमा दूध निकलना।

04. कभी-कभी खून मिला या थक्के युक्त दूध निकलना।

05. दूध की मात्रा में कमी।

06. पशु का खाना-पीना कम होना।

07. दूध का रंग मटमैला, पीला, गुलाबी या हरापन लिये होना।

08. दूध से बदबू आना।

09. कभी-कभी थानों में गांठे पड़ना एवं रोगग्रस्त थन का सिकुड़ जाना अथवा छोटा हो जाना।

 

रोग का उपचार एवं बचाव के उपाय

 01. रोग-ग्रसित फूले हुये अयन पर आयोडीन मरहम, सुमेग, बेलाडोना ग्लैसरित पेस्ट अथवा लिनीमेंट लगा कर सेक करने से काफी लाभ होता है। गर्म पानी में मैगसल्फ, बोरिक एसिड अथवा नीम की पत्तियां डालकर भी अयन को सेंका जा सकता है।

02. पैनिसिलिन,स्ट्रेप्टोमाइसिन, और सल्फाडिमीडीन का मिश्रण काफी सिद्ध हुआ है। 50,000 यूनिट पैनिसिलिन तथा 20 से 30 घ.से. सल्फाडिमीडीन को मिलाकर अन्तःस्तनीय इंजेक्शन देने से तीन-चार दिन में ही इस रोग से छुटकारा मिल जाता है।

03. पशु को विटामिन ‘ई’ के साथ सेलेनियम लवण खिलाने से इस रोग के प्रकोप में कमी देखी गई है।

 04. पशुशाला को प्रतिदिन 2 बार डिटर्जेंट या फिनाइल के पानी से धोना चाहिए।

035. दूध दोहने वाले ग्वाले के हाथ से स्वच्छ होने चाहिए।

06. दूध साफ-सुथरे थन से, साफ स्थान एवं साफ पात्र में निकालना चाहिए।

07. दूध दुहने से पहले व बाद में थानों को लाल दवा के घोल से धोना चाहिए।

08. रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए।

09. स्वस्थ पशुओं को दोहने के बाद रोगी पशु को दोहना चाहिए।

10. रोगी पशु का दूध, पशुओं तथा मनुष्यों द्वारा उपयोग में नहीं लिया जाना चाहिए।

11. दूध सही विधि से निकाले एवं निश्चित समय से अधिक समय तक दूध थनों में नहीं छोड़ना चाहिए।

12. थनों में बछड़े द्वारा किये गये घाव अथवा चोट का उपचार तुरंत करवायें ताकि उनमें संक्रमण न हो।


1 Comment

Vimal pandey · October 13, 2018 at 8:48 pm

जानवरों में थनैला रोग से बचाव के उपाय बताए

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