01. डेम्पिग ऑफ

इस रोग के लक्षण पौधों पर दो रूप मे दिखाई देते हैं। बीज अंकुरित होकर भूमि की सतह से निकलने के पूर्व संक्रमित होकर नष्ट हो जाते हैं। जिससे रोपणी में ऐसा प्रतीत होता है कि बीज अंकुरित नहीं हुआ है, अंकुरण के पश्चात पौधे के तनों पर इस रोग का आक्रमण होता है एवं तने का विगलन होने पर पौधे भूमि की सतह पर गिर कर नष्ट हो जाते हैं। रोपणी में पौधों की घनी बुवाई एवं आवश्यकता से अधिक नमी की उपलब्धता इस रोग को बढ़ाने में सहायक होते हैं।

रोकथाम

(i) रोपणी का स्थान हर वर्ष बदल दें एवं रोपणी स्थल को या तो सूर्य ऊर्जा से या फार्मेलिन 1 भाग एवं 7 भाग पानी से उपचारित करें।

(ii) बीज का केप्टान (3 ग्राम/कि.ग्रा.बीज) या कार्बेंडाजिम 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज से उपचारित करें।

(iii) बीजों की बुवाई कतार में करें, वायु संचार एवं खरपतवार प्रबंधन हेतु सावधानीपूर्वक गुड़ाई करें।

(iv) अतिरिक्त जल रोग के संक्रमण एवं प्रसार में सहायक होता है अतः जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।

(v) संक्रमण होने पर रोगग्रस्त पौधों को नष्ट कर देना चाहिए।

 

02. अगेती झुलसा

इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों, तनों एवं फलों पर 0.25 – 0.5 इंच वृत्ताकार में छोटे काले या भूरे रंग के धब्बे विकसित हो जाते हैं। पत्तियों पर धब्बे कठोर होते हैं, तथा ये धब्बे अक्सर एक गहरे अंगूठीनुमा दिखते हैं। ये धब्बे पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं। फल पर धब्बे शुष्क धंसे हुए गहरे होते हैं।

 

रोकथाम

(i) जिस खेत में यह रोग लगा हुआ हो, उसमें 2 वर्ष तक टमाटर की फसल नहीं लेनी चाहिए।

(ii) सदैव स्वस्थ बीजों का प्रयोग करना चाहिए।

(iii) गर्मीयों में खेत की गहरी जुताई करें, जिस से बीमारी फैलाने वाली फफूंद नष्ट हो जाए।

(iv) जैसे ही पत्तियों पर रोग के लक्षण दिखाई दें, क्लोरोथालोनिक के 0.2 फीसदी घोल का 8 दिनों के अन्तर पर छिड़काव करें।

(v) बचाव के लिए ब्लाइटॉक्स-50 नामक दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए।

(vi) रोग प्रतिरोधी किस्मों कल्याणपुर सलेक्शन-1, आदि की बुवाई करनी चाहिए।

03. पछेती झुलसा

यह रोग फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेंस नामक फफूंद से फैलता है। इस रोग के प्रकोप से पत्तियों पर कालापन लिए हरे रंग के पानी वाले धब्बे पड़ जाते हैं। ये धब्बे नम व ठंडे मौसम में तेजी से बढ़ते हैं और कभी-कभी पौधे की निचली सतह सफेद हो जाती है। तने पर भी इसी प्रकार के धब्बे पड़ जाते हैं। इस रोग से फल बदरंग हो जाते हैं।

रोकथाम

(i) स्वस्थ बीजों का प्रयोग करना चाहिए।

(ii) सभी बीमार फलों व पौधों के हिस्सों को इकट्ठा करके खेत से बाहर ले जा कर जला देना चाहिए।

(iii) जैसे ही बदली वाले मौसम के आसार हों, तब मैंकोजेब दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करें। इस दवा के घोल का छिड़काव 5 से 7 दिनों बाद दोहराएं।

(iv) यदि ज्यादा प्रकोप हो तो मेटालेक्सिल मैंकोजेब के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें।

04. पत्ती सिकुड़न व मोजैक

यह रोग टोमैटो स्पोटेड उक्टा विषाणु से फैलता है। इस रोग से पौधे बौने रह जाते हैं व पत्तियां ऐंठ कर आकार में छोटी रह जाती हैं। पौधों में बहुत ज्यादा शाखाएं निकल आती हैं और उन में फल बिलकुल ही नहीं लगते हैं। इस रोग को तंबाकू में लगने वाला गिडार एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलाता है।

रोकथाम

(i) इस रोग की रोकथाम के लिए बुवाई से पहले कार्बोफ्यूरॉन- 3जी 8 से 10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से जमीन में मिलाना चाहिए।

(ii) रोपाई के 15 से 20 दिनों बाद डाईमिथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 36 एसएल का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. यह छिड़काव 15 से 20 दिनों के अंतराल दोहराना चाहिए।

05. टमाटर गलना या मुरझाना

यह रोग स्युडोमोनास सोलेनेसीएरम नामक जीवाणु द्वारा फैलता है। पहली अवस्था में पौधों का मुरझाना शुरू होता है और बाद में पत्तियां भी मुड़ जाती हैं.पहले नीचे की पत्तियां पीली पड़ कर मर जाती हैं, बाद में ऊपर की पत्तियां मरती हैं। रोगी पौधे के तने को काटने पर वह गहरे भूरे रंग का दिखाई पड़ता है।

रोकथाम

(i) सदैव स्वस्थ बीजों का प्रयोग करना चाहिए।

(ii) रोगी पौधे को उखाड़ कर गड्ढे में दबा या जला देना चाहिए।

(iii) जिस खेत में यह रोग लगा हुआ हो, उस खेत में 2 -3 वर्षो तक टमाटर की फसल नहीं लेनी चाहिए।

(iv) इसकी रोकथाम के लिए बायफेथीन 10EC 400ML प्रति एकड़ पानी मे घोलकर छीटकाव करे

06. फल सड़न

इस रोग का संक्रमण सामान्यत: कच्चे एवं हरे फलों पर दिखाई देता है। प्रभावित फलों पर हल्के या गहरे भूरे रंग के गोलाकार धब्बे चक्र के रूप में दिखाई देते है । रोगग्रस्त फल प्राय: जमीन पर गिर कर सड़ जाते हैं। ये सड़े फल रोगजनक एवं फफूंद की वृद्धि कर संक्रमण को बढ़ाते हैं ।

रोकथाम

(i) यह ध्यान रखें कि फल मिट्टी को न छूने पाएं, इसके लिए पौधों के साथ लकड़ी के डंडे बांध दें।

(ii) खेत में सिंचाई का पानी अधिक समय तक न रुकने दें।

(iii) फसल की बुवाई से पहले खेत में हरी खाद की फसल को बो कर खेत में उलट दें।

(iv) खेत की तैयारी के समय 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें।

(v) सभी सड़े फलों को इकट्ठा कर के नष्ट करें ताकि रोग न फैले।

07. जीवाणु धब्बा रोग

इस रोग का प्रकोप पूरे देश में होता है। इस रोग के छोटे धब्बे रोपाई से पहले पौधों की पत्तियों पर दिखाई देते हैं। बाद में धब्बे इकट्ठे हो कर पौधों की पत्तियों को जला देते हैं। इस रोग का असर खरीफ मौसम में ज्यादा होता है, जिस से औसतन 35 से 40 फीसदी पौधे प्रभावित हो जाते हैं व 40 फीसदी तक उत्पादन कम हो सकता है। इस रोग का असर कच्चे फलों पर सब से ज्यादा होता है। नतीजतन हरे फलों के ऊपर धब्बे बन जाते हैं।

रोकथाम

(i) बुवाई से पहले बीजों को स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 100 पीपीएम घोल में डुबोएं।

(ii) गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए।

(iii) स्वस्थ्य बीजों का प्रयोग करना चाहिए।

(iv) शाम के समय स्ट्रेप्टोसाइक्लिन का छिड़काव 150 से 200 ppm के घोल द्वारा करें व इसके बाद कॉपर ऑक्सीक्लोराइड के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें।


2 Comments

Akshay pelmhale · September 12, 2018 at 10:59 am

Nice

Naveen · April 15, 2020 at 11:53 pm

Nice information

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